'कुरुक्षेत्र' रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध प्रबंधात्मक कृति है, जिसे उचित ही आलोचकों ने 'साकेत' और 'कामायनी' के साथ उल्लेखनीय माना है। यह उनकी अत्यंत प्रौढ़ रचना भी है, जिसमें किसी प्रकार का शैथिल्य नहीं है। इसकी भाषा तो हमेशा स्पृहणीय साहित्यिक स्तर पर बनी रहती ही है, प्रबंध-काव्य के रूप में इसका शिल्प भी अत्यंत सुगढ़ है। भाषा के साथ-साथ शिल्प में नवीनता भी है, जो इसके आकर्षण को बहुत बढ़ा देती है।
जैसा कि सभी जानते है, 'कुरुक्षेत्र' की रचना युद्ध की पृष्ठभूमि में की गई है। यह युद्ध द्वितीय विश्वयुद्ध है, जिसे कवि ने छिपाया नहीं है। पंचम सर्ग के आरंभ में वह साफ शब्दों में कहता है :
शारदे ! विकल संक्रांति-काल का नर मैं,
कलिकाल-भाल पर चढ़ा हुआ द्वापर मैं,
संतप्त विश्व के लिए खोजते छाया,
आशा में था इतिहास-लोक तक आया।
पर हाय, यहाँ भी धधक रहा अंबर है,
उड़ रही पवन में दाहक, लोल लहर है....
ये पंक्तियाँ दिनकर के मानस को पूरी तरह से खोलकर पाठकों के सामने रख देती हैं। कवि संक्रांति-काल का है, एक मूल्य-संघर्ष में पड़ा हुआ, स्थापित आदर्शों के प्रति द्वापर अर्थात् संदेह से भरा हुआ। अपनी समस्या का समाधान पाने के लिए वह महाभारत तक जाता है, लेकिन वहाँ भी वही हाल है, आग की लपटें उठ रही हैं...। समस्याएँ तो अनेक हैं, लेकिन जो मनुष्यता की सबसे बड़ी समस्या है और जो कवि को पागल बनाए हुए है, वह युद्ध से संबंधित है। महाभारत युद्ध-काव्य ही है और उसमें युधिष्ठिर तथा भीष्म-जैसे ज्ञानी और विचारवान् चरित्र हैं, इसलिए कवि का उसकी तरफ उन्मुख होना स्वाभाविक था। समस्या चूंकि बुद्ध की है, जो भावुकता का नहीं, विचार का विषय है, इसलिए आश्चर्य नहीं कि 'कुरुक्षेत्र' को विचार-काव्य माना गया और प्रायः उसी दृष्टि से इस पर विचार किया गया।
सच्चाई क्या है ? यह जानने के पहले यह जान लेना जरूरी है कि 'कुरुक्षेत्र' न पूर्णतः पौराणिक काव्य है और न पूर्णतः आधुनिक काव्य। इसमें पौराणिकता और आधुनिकता का विलक्षण ढंग से मिश्रण है और दोनों एक दूसरे को झलकाती है, एक दूसरे पर प्रकाश निक्षेप करती हैं। यदि यह कवि का उद्दिष्ट न होता, तो वह इस काव्य की विषय-वस्तु के संबंध में पुस्तक की भूमिका में यह संकेत न देता कि उसे सर्वथा आधुनिक ढंग से भी उपस्थित किया जा सकता था। पूरा का पूरा षष्ठ सर्ग इस बात की गवाही देत्ता है कि अतीत और वर्तमान में उसकी आवाजाही निरंतर बनी रही है और इसके द्वारा उसने हिंदी कविता में काव्यत्व और आस्वाद के एक नए धरातल का निर्माण किया है।
जहाँ तक 'कुरुक्षेत्र' के विचार-काव्य होने का सवाल है, यह कोई दर्शनशास्त्र का ग्रंथ नहीं, बल्कि अंततः काव्य-ग्रंथ ही है, जिसमें भाव विचार तक उठे हुए हैं और विचार भावों में रूपांतरित हो गए है। इसकी भावात्मकता इसके काव्यात्मक प्रवाह में है और इसकी वैचारिकता उस प्रवाह के भीतर स्थित उस संबंध-सूत्र में, जिसके सहारे पाठक एक बिंदु से चलकर दूसरे बिंदु तक पहुँचता है। भूमिका में ही दिनकरजी का यह कहना पूरी तरह से सही है कि 'कुरुक्षेत्र' में एक साधारण मनुष्य का शंकाकुल हृदय ही मस्तिष्क के स्तर पर चढ़कर बोल रहा है। इस तरह इसमें हृदय और मस्तिष्क के बीच पारस्परिक गुणों का विनिमय है।
Hindu (हिंदू धर्म) (13443)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (714)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2075)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1543)
Yoga (योग) (1157)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24544)
History (इतिहास) (8922)
Philosophy (दर्शन) (3591)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist