इसलिए आवश्यक है कि व्यक्ति स्वयं की ओर भी दृष्टि डाले। तब उसे अनुभव होगा कि वस्तुतः रोगी तो हम भी हैं। और स्वस्थ्य समाज के लिये परम आवश्यक है कि व्यक्ति अपने को ठीक-ठीक समझने और उसकी चिकित्सा के लिये प्रस्तुत हो।
रामचरितमानस के अन्त में काकभुशुण्डि गरुड़ के संवाद में इन्हीं मानस रोगों का सूक्ष्म और सांकेतिक वर्णन किया गया है। उसे हृदयंगम करने के लिये यह आवश्यक था कि पहले व्यक्ति उसे समझ कर प्रेरणा प्राप्त कर ले।
ब्रह्मलीन स्वामी श्री आत्मानन्दजी महाराज के आग्रह पर रामकृष्ण मिशन विवेकानन्द आश्रम, रायपुर में इन प्रवचनों की श्रृंखला चली थी। इसका एक अंश 'मानस रोग' नाम से प्रकाशित भी हो चुका है। यह नवीन प्रकाशन भी उसी श्रृंखला की एक कड़ी है। आशा है सुधी जनों को यह पूर्वाश की ही भाँति प्रेरक प्रतीत होगी।
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