सामान्य रूप से प्राचीन भारत में युद्धनीति तथा सैनिकवृत्ति क्षत्रियों का विशेषाधिकार माना जाता था, लेकिन मनु ने ब्राह्मणों को भी इसके योग्य घोषित किया। कामन्दक में भी कहा गया है कि पुरोहित, मंत्री तथा सामन्त सेना के मुख्य नेता होते हैं। यह बात है कि ब्राह्मणजन स्वयं सेनापति के योग्य माने जाते थे। 'महाभारत' में उल्लेखित द्रोण, शुंगवंश के संस्थापक पुष्यमित्र और ऐसे ही अन्य अनेक उदाहरणों से स्पष्ट है। मयूर शर्मा जो ब्राह्मणों की मनोवृति का था तालकुंड अभिलेख के अनुसार किसी सैनिक से झगड़ा हो जाने पर शास्त्र छोड़कर शस्त्र अपना लिया था।
इस प्रकार राजसत्ता को धारण करने वाले वर्गों की पहचान और राज संस्था के विभिन्न अंगों तथा समाज के विभिन्न वर्गों के पारस्परिक संबंधों का विश्लेषण युद्धनीति के सहारे बड़े रोचक और महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं लेकिन अभाग्यवश प्राचीन भारतीय इतिहास के आधुनिक लेखकों का ध्यान इस ओर नहीं गया। वे अभी तक विभिन्न वंशो की जाति का अभिज्ञान स्थिर करने में लगे हैं बजाय इसके कि वे राजसंस्था के विभिन्न अंगों का संबंध समाज के विभिन्न वर्गों से जोड़े। लेकिन यह तब तक नहीं किया जा सकता जब तक वे राजनीतिक इतिहास के लेखक में सामाजिक इतिहास की सहायता नहीं लेंगे। युद्धनीति भी उसी सामाजिक इतिहास लेखन का एक अंग है क्योंकि युद्धनीति में राजनीति से अधिक सामाजिक व्यवस्था प्रभावित होती है।
चन्द्रगुप्त की नीति समस्त छोटे राज्यों का अंतकर भारत को राजनीतिक एकता के सूत्र में सुसंगठित करने की थी। वह बड़ा ही महत्वकांक्षी तथा साम्राज्यवादी शासक था। उसके साम्राज्य का आधार सैनिक शक्ति थी। उसकी सेना चार भागों में विभाजित थी-पैदल, अश्वरोही, हाथी और रथ। इसे ही चतुरंगिणी सेना कहते हैं। उसकी सेना स्थायी थी और सैनिकों को राजकोष से वेतन धन के रूप में दिया जाता था। सम्राट ही प्रधान सेनापति था। सेना का प्रबंध करनेवाला पदाधिकारी 'बलाध्यक्ष' नाम से प्रसिद्ध था। प्लिनी के अनुसार चंद्रगुप्त की सेना में रथों के अतिरिक्त छह लाख पदातिक, तीस हजार अश्वरोही और नौ हजार गज थे।
युद्ध करने वाली सेना तीस सदस्यों की एक प्रबंधकारिणी समिति की देखभाल में थी। ये सदस्य छह समितियों में विभाजित थे और प्रत्येक समिति का कार्यक्षेत्र एक-दूसरे से भिन्न था। प्रथम समिति का कार्य जल-व्यवस्था करना था और दूसरी समिति सेना की सामग्री एवं रसद की व्यवस्था करती थी। तीसरी, पैदल सेना का प्रबंध करती थी और इसका प्रधान 'पदात्यध्क्ष' कहलाता था। चौथी समिति, अश्वरोही सेना का प्रबंध करती थी। पाँचवी समिति, हस्तिसेना और छठी समिति, रथ सेना की व्यवस्था करती थी। चौथी समिति का प्रधान 'अश्वाध्यक्ष, पाँचवी का 'हस्तयध्क्ष' और छठी का 'स्थध्यक्ष' कहलाता था। युद्धक्षेत्र में घायलों की चिकित्सा के लिए चिकित्सक आदि भी रहते थे। इस युद्धविराम या युद्धपरिषद् के अंतर्गत नौसेना, यातायात और रसद के विभाग भी थे। सुव्यवस्थित सेना का विवरण मेगास्थनीज ने भी प्रस्तुत किया है और उसने उपर्युक्त छह महकमों का उल्लेख किया है। 'अर्थशास्त्र' में 'मौल' और 'भृतबल' के अतिरिक्त, 'श्रेणीबल', 'अटविबल' और 'मित्रबल' का भी उल्लेख है। सेनाध्यक्ष के अतिरिक्ति हस्तध्यक्ष, अश्वाध्यक्ष, गवाध्यक्ष और अशोककालीन 'ब्रजभूमिक' इत्यादि प्रमुख अफसर होते थे। सैनिक दृष्टिकोण से दुर्ग का भी बड़ा महत्व था। चार प्रकार के दुर्गों का उल्लेख मिलता है। स्थल-दुर्ग, जल-दुर्ग, गिरि-दुर्ग और मरू-दुर्ग। इन दुर्गों की रक्षा की उचित व्यवस्था थी। अस्त्र-शस्त्रों पर राज्य का एकाधिकार था और इनके निर्माण के लिए कई सरकारी कारखाने थे। जलमार्गों की रक्षा के लिए जल सेना भी थी। सेना-विभाग के प्रधान पदाधिकारी के अधीन बहुत से छोटे-बड़े सेनानायक थे। सैनिक विभाग के अंतर्गत एक सुसंगठित गुप्तचर विभाग भी था।
सेनापति युद्ध-विभाग का प्रधान होता था। वह सम्पूर्ण युद्धविद्या और अस्त्र-शस्त्र विद्या में पारंगत होता था। वह चतुरंगसेना (पदाति, अश्व, रथ, हस्ति) के कार्य तथ स्थान का निरीक्षण करता था। युवराज शासन में हाथ बंटाता था। कंटकशोध न्यायालय के न्यायधीश को प्रदेष्टा कहते थे। सेना का मुख्य संचालक सेनापति युद्ध-विभाग का प्रधान होता था। वह सम्पूर्ण युद्धविद्या और अस्त्र-शस्त्र विद्या में पारंगत होता था। वह चतुरंगसेना (पदाति, अश्व, रथ, हस्ति) के कार्य तथ स्थान का निरीक्षण करता था। युवराज शासन में हाथ बंटाता था। कंटकशोध न्यायालय के न्यायधीश को प्रदेष्टा कहते थे। सेना का मुख्य संचालक नायक कहलाता था। युद्ध के समय वह सेना के आगे रहता था। धर्मस्थलीय न्यायलय के प्रधान व्यवहारिक या 'धर्मस्थ' कहलाते थे। कर्मातिक कारखानों का संचालन करता था।
दंडपाल का संबंध भी सेना के साथ था और अंतपाल का भी। सीमा प्रदेश के दुर्ग अंतपाल के अधीन के और साम्राज्य के अंतर्वर्ती दुर्ग 'दुर्गपाल' के अधीन। नगरों का शासक 'नागरक' के अधीन था। राजशासन अथवा राजाज्ञाएँ लिपिबद्ध करने के लिए जो अधिकारी था वह 'प्रशास्ता' कहलाता था। उसके अधीन जो विशाल कार्यालय होता था, उसे 'अक्षपटल' कहते थे। दौवारिक राजप्रसाद का प्रधान अधिकारी होता था। राजा की निजी अंगरक्षक सेना के अध्यक्ष का आंतर्वशिक कहते थे। मौर्यकाल में आटविक बल भी अठारह तीर्थों में एक माना गया है।
चन्द्रगुप्त और अशोक के काल में हम देखते हैं कि राजा स्वयं सेना का नेतृत्व करता था। केवल अंतिम मौर्य-सम्राट् के शासनकाल में ही हम पाते हैं कि एक सेनापति का महत्व राजा से अधिक बढ़ गया था। सैनिक व्यवस्था में अशोक के समय थोड़ा-बहुत परिवर्तन अवश्य ही हुआ होगा। अशोक ने युद्ध की निंदा की और शिकार भी बंद कर दिया। उसके राज्य में 'भेरीघोष', 'धम्मघोष' में बदल गया, जिसके फलस्वरूप सेना अपने आंतरिक बल और योग्यता की रक्षा नहीं कर सकी।
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