यहाँ पर मैंने नाटककार सुरेन्द्र वर्मा के समस्त प्रकाशित नाटकों पर विस्तार से कार्य करने का विनम्र प्रयास किया है। नाटककार सुरेन्द्र वर्मा पर आधारित अपने इस शोध-प्रबन्ध को मैंने नौ अध्यायों में विभक्त किया है।
प्रथम अध्याय में बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार सुरेन्द्र वर्मा के व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व का परिचय दिया गया है। साहित्यकार के रूप में सुरेन्द्र वर्मा ने हिन्दी साहित्य को जो योगदान प्रदान किया है वह महत्त्वपूर्ण है। वे कहानीकार, उपन्यासकार, एकांकीकार, व्यंग्यकार और नाटककार हैं। किन्तु उनका नाटककार उनके साहित्यकार पर हावी है, इसको यहाँ व्यक्त किया गया है।
द्वितीय अध्याय में नाट्य साहित्य की विकास रेखा को संक्षिप्त में प्रस्तुत करते हुए हिन्दी नाटक के विभिन्न युगों पर प्रकाश डाला है, स्वातंत्र्योत्तर युग के प्रमुख नाटककारों और उनके प्रमुख नाटकों के विषय को संक्षिप्त में प्रस्तुत करने का इस अध्याय में प्रयत्न किया गया है।
तृतीय अध्याय में नाटक को सर्वश्रेष्ठ विधा के रूप में देखते हुए यह सिद्ध किया है कि नाटक और रंगमंच एक सिक्के के दो पहलू है। उनके बीच के सम्बन्ध को प्रस्तुत करते हुए रंगमंच का अर्थ, रंगमंच की व्याख्या, पाश्चात्य दृष्टिकोण से रंगमंच का स्वरूप, भारतीय दृष्टिकोण से रंगमंच का स्वरूप, हिन्दी रंगमंच का अभ्युदय और प्रमुख रंगमंचीय नाटककारों में सुरेन्द्र वर्मा के स्थान को निर्धारित करने का प्रयत्न किया है।
चतुर्थ अध्याय के अंतर्गत वर्मा जी के नाटकों के कथ्य का आस्वाद मूलक परिचय दिया गया है।
पंचम् अध्याय के अंतर्गत सुरेन्द्र वर्मा के नाटकों में चित्रित प्रमुख पात्रों का चित्रण किया गया है।
षष्ठम् अध्याय में नाटकों में व्यक्त परिवेश को प्रस्तुत किया गया है। उनके नाटकों का परिवेश ऐतिहासिक, पौराणिक एवम् समकालीन है, किन्तु वे आज के मनुष्य के आंतरिक परिवेश को व्यक्त करते हैं।
सप्तम् अध्याय में वर्मा जी के नाटकों में संवेदनाओं को व्यक्त करने के लिए जिन प्रतीकों का सहारा लिया है, उसकी चर्चा की गयी है। वर्मा जी के नाटक समकालीन युगबोध को व्यक्त करने वाले हैं, जिसे हम उनकी संवेदनाओं के अंतर्गत देख सकते हैं।
अष्टम् अध्याय के अंतर्गत शिल्पपक्ष की बात कही गयी है। शिल्प-पक्ष के अंतर्गत मंच-सज्जा, पात्रों का क्रिया-व्यापार जो नाटकों को गति प्रदान करने के साथ-साथ प्रस्तुति पक्ष को सबल बनाता है। संवाद और भाषाशैली का वर्मा जी के नाटकों में विशेष महत्त्व है। इसके अंतर्गत उन्होंने कई प्रयोग किये हैं, जो उनके नाटकों को समर्थ बनाने में महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं। उनके नाटकों में गीतों का भी अनन्य स्थान है। ध्वनि और प्रकाश-योजना भी नाटकों के प्रस्तुतीकरण में महत्वपूर्ण है। वर्मा जी ने इसका भी सफलतापूर्वक प्रयोग किया है।
नवम् अध्याय के अंतर्गत दर्शकीय संवेदना को प्रस्तुत किया गया है। वर्माजी के नाटकों को देखकर दर्शकों पर इसकी क्या प्रतिक्रिया हो सकती है, इसको व्यक्त करने का यहाँ प्रयास किया गया है।
अंत में निष्कर्ष दिया गया है, जो उपसंहार का द्योतक है। उपसंहार के अंतर्गत सम्पूर्ण अध्ययन का मूल्यांकन प्रस्तुत किया गया है।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध पूज्य गुरुदेव डॉ. दक्षाबहन जानी के निर्देशन में सम्पन्न हुआ है। उनके उदार और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व की सुखद छाया में शोध कार्य करना परम सौभाग्य है। मैं उनका पी-एच. डी. प्रथम छात्र हूँ, जिससे अपने आप को सौभाग्यशाली समझता हूँ। विषयचयन से लेकर शोध की परिसमाप्ति तक उन्होंने अपनी व्यस्तता का अहसास कभी नहीं होने दिया और सदैव मौलिक सुझाव देती रहीं। वात्सल्य दृष्टि के साथ अपना निर्देशन आदरणीय मेडम ने दिया। इस वात्सल्य दृष्टि का मैं आजीवन ऋणी रहूँगा ।
इस अवसर पर पूज्य गुरुवर डॉ. शशिबाला पंजाबी का मैं हृदय से आभारी हूँ। जिनके स्नेहसिक्त कुशल एवम् सकारात्मक परामर्श के कारण ही अपने जीवन की विपरीत परिस्थितियों, हताश एवं असमर्थ अवस्था से ऊपर उठकर इस शोध कार्य को पूर्ण कर सका। शशि मेडम ने मुझे उचित एवं प्रेरणादायी मार्गदर्शन, बहुविध सहयोग, आशीर्वाद, प्रेरणा एवं संरक्षण दिया है, जिससे यह शोध कार्य सरलता एवं कुशलता से पूर्ण कर सका ।
गुजरात विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष आदरणीय डॉ० रंजना अरगड़े का मार्गदर्शन मुझे सदैव सहज उपलब्ध रहा है। उनके सहयोग के लिए मैं उनके प्रति भी आभारी हूँ। उन्होंने स्नेह से मेरा उत्साह वर्धन किया है, जो मेरे लिए अविस्मरणीय रहेगा।
साथ ही इस विकट यात्रा में सहायक सरोज, माता-पिता, भाई-भाभी, सहायक मित्रों, कॉलेज परिवार का भी हार्दिक धन्यवाद करता हूँ। जिनका मुझे सतत् प्रोत्साहन मिलता रहा है। अंत में, यह शोध प्रबन्ध नाटककार सुरेन्द्र वर्मा को समझने में सहायक होगा तो मैं अपना यह प्रयास सार्थक समहूँगा ।
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