हिन्दी के यशस्वी कवि अष्टभुजा शुक्ल के ललित निबन्धों के संकलन 'पानी पर पटकथा' को पढ़ना शुरू करते ही ध्यान में आया कि संस्कृत विद्वानों की एक परम्परा है जिन्होंने हिन्दी गद्य को समृद्ध किया है। सर्वप्रथम पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का फिर, गुरुवर पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी का। ये प्रामाण्य व्यक्तित्व थे। प्राचीन के जानकार थे, प्राचीनतावादी नहीं थे, पुरातन के मर्मज्ञ और विचारों में प्रगतिशील, आधुनिक। प्रगतिशीलता और आधुनिकता की संदेशवाहिका इनकी भाषा का चलतापन। (चलतापन आचार्य शुक्ल का व्यवहृत शब्द है पद्माकर की भाषा के लिए जिनकी भाषा की आचार्यश्री ने अनथक प्रशंसा की है) गुलेरी जी पाणिनि के अध्येता थे। गद्य 'उसने कहा था', कछुआ धर्म मारेसि मोहिं कुठांव' जैसी रचनाओं को लिखते थे। पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी हिन्दी में बाणभट्ट की आत्मकथा लिखते थे और संवेदना जबदा गयी है। अगवाह रास्ता, अटट गँवार भी लिखते थे। इस सूची में पं. विद्यानिवास मिश्र और श्री कुबेरनाथ राय का भी नाम जोड़ सकते हैं। कुबेरनाथ राय की भाषा विज्ञता के बारे में मेरी जानकारी ज्यादा नहीं है। वे अँग्रेजी के अध्यापक थे, इतना जानता हूँ। आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री संस्कृतज्ञ थे लेकिन निबन्धकार नहीं थे।
इस सूची में जुड़नेवाला नवीनतम नाम अष्टभुजा शुक्ल का है। इनकी विशेषता यह है कि इससे पहले कोई कवि रूप में वह यश नहीं प्राप्त कर सका था। सो अष्टभुजा शुक्ल हिन्दी गद्य को समर्थतर बनाने वाले सिर्फ गद्यकार नहीं समर्थ कवि सक्षम गद्यकार हैं।
प्राचीन विज्ञता की प्राचीन समकालीनता की धारा टकराकर आधुनिक बनाई है। कसौटी है कि वह समकालीन सरोकारों में उपयोगी हो और काम आए। हम देखते हैं कि 'पानी पर पटकथा' के निबन्ध शुरू तो होते हैं। (प्रायः) पुराने जमाने की बात से लेकिन निबन्धकार का 'मैं' जिन समस्याओं को झेलता है वे सब उसी के जमाने की हैं। यह अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि निबन्धकार का मैं, सिर्फ मैं नहीं है वह 'हम' है। यानी अपने समय का ऐतिहासिक आम आदमी। इन निबन्धों में निबन्धकार का 'मैं' विशिष्ट स्थिति में प्रायः सर्वत्र मौजूद रहता है। वह कोई ऐसा अभिनेता है जो कोई एक भूमिका नहीं निभाता। वह स्थिति के अनुकूल कुछ भी हो सकता है। नायक, प्रतिनायक, गरीब अमीर, अच्छा बुरा सिर्फ एक बात है कि वह स्थितियों को ठेल कर वहाँ पहुँचा देता है। जहाँ हमारे समय की ऐतिहासिक नैतिकता उजागर हो जाती है। इस तरह से देखें तो पानी पर पटकथा के ललित निबन्ध स्वातन्त्र्योत्तर भारत की प्रकारान्तर से है यही एक आचरण संहिता को प्रस्तुत करते हैं। बात यह है कि साहित्य अगर चुपचाप पाठक के मनोजगत् में विक्षोभ पैदा करने के उपरान्त किसी आचरण-पथ का निर्देशन करे तो वह सार्थक नहीं हो सकता। पथ का स्पष्ट निर्देश करके भी वह पथ का कोई संकेत करता है। कम से कम कर्तव्याकर्तव्य डूज़ और डॉट्स का संकेत करता है। कुछ करने का संकेत न करे तो 'इसे नहीं करना चाहिए' का संकेत करता है। अष्टभुजा शुक्ल के ललित निबन्ध सिर्फ ललित नहीं। ललित तो विधा या काव्यरूप का बोधक है। अन्तर्वस्तु में तो ये पाठक को हमारे समय की असाध्य, दुस्साध्य समस्याओं, जीवन के जटिल और बीहड़ पथों पर ले जाते हैं। इस बीहड़ता में सर्वत्र प्रायः हाशिए पर स्थित वंचित व्यक्ति स्पष्टतः निम्नवर्गीय और निम्नवर्गीय भारतीय जन की जीवन कथा है। संघर्ष शब्द का प्रयोग जानबूझकर नहीं कर रहा क्योंकि ऐसे भी हल भाग्य हैं जो संघर्ष कौन कहे। अपनी जबान भी नहीं खोल सकते। निराला के शब्दों में 'हताशवास'।
ललित निबन्ध चाहे जितने ललित हों, हैं वे निबन्ध ही। उनमें 'बन्ध' होना चाहिए। विषयवस्तु का और तर्कसंगति का। अष्टभुजा शुक्ल के निबन्धों में ग़ज़ब की आन्तरिक संगति है। वे किसी कथन को अपुष्ट नहीं रहने देतेचाहे उनका अपना हो या पूर्व सृष्टियों का। इन निबन्धों में अष्टभुजा शुक्ल लेखक के रूप में भी किसान लगते हैं। सरोकारों, स्थितियों से जूझते हुए, वंचित जन के साथ जीवन क्षेत्र में कुदाल कलम से जोतते-खोदते हुए। तर्क-वितर्क चाहे जितना हो बहस मुबाहिसा हो, प्राचीन, नवीन उक्तियों का समावेश हो-वह समग्रज्ञान-विज्ञान, जानकारी, वाक्पटुता, ऐतिहासिक जन की पक्षधरता में दृढ़ता से खड़ी हो। करुणा का माहात्म्य तो संस्कृतज्ञ अष्टभुजा शुक्ल ही जानते होंगे। लेकिन यह तो नहीं है कि कुछ न कुछ सोचकर ही करुण को ही रस कहा होगा कालप्रियानाथ के उपासक ने।
करुणा स्पन्दित रचना ही सार्थक होती है नहीं तो- जरि जानु सो जीवन जानकीनाथ नियइ जय ने तुम्हारे बिन वै।
"वह सर्पदन्त की मारी बच्ची मेरी बेटी, भतीजी या नातिनी में से कुछ भी तो नहीं। उसकी मैं जाति नहीं जानता, गोत्र नहीं जानता, सम्प्रदाय नहीं जानता। जानता हूँ तो सिर्फ पाँच साल की उम्र, खेलने-कूदने, खिलखिलाने, खाने-पीने की बेकसूर उम्र। मैदा की लोई जैसी देहयष्टि। हाजीपुरी केले की बटिया जैसी नन्हीं-नन्हीं उंगलियाँ। फूल कुमुदों जैसी स्वच्छ हँसी। मूँगफली के कच्चे दानों की दालों जैसे दाँत। नौसम्दा जैसी रुलाई और खरगोश के बच्चे जैसी निष्पाप आखें।"
समकालीन गद्य में फलीभूत होने वाली परम्परा की यह सम्पन्नता संस्कृत ही दे सकती थी। पर्यवेक्षणा जीवन और जनता के प्रति आत्मीयता देता है। कौन कहता है कि हिन्दी गद्य में वाणभट्ट की सम्भावना नहीं है। पानी पर पटकथा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी को समर्पित है।
इस पुस्तक का पाठक अष्टभुजा शुक्ल के देशप्रेम की भावना देखकर चकित रह जाएगा। देशप्रेम देश परिचय की ज़मीन पर फलता है। वे अपने आसपास, निकट और दूरदराज की घटनाओं- राष्ट्रीयता अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं को कितने ध्यान से देखते और हृदयांगम करते हैं- कितना विक्षुब्ध और कभी-कभी सन्तुष्ट भी होते हैं। उनका सारा अर्जित वैदुराय इसी विक्षोभऔर तुष्टि से टकराकर शब्द-बद्ध होता है। और इसीलिए उनके निबन्ध हमारे समय के दस्तावेज भी हैं क्योंकि वे देशकाल के क्षर से बिद्ध हैं। इन निबन्धों को पढ़कर मुझे लगता रहा कि हमारे समय- (पुस्तक के रचना-समय) की शायद ही कोई उल्लेखनीय घटना हो जिसका किसी न किसी रूप में उल्लेख न हुआ हो इस पुस्तक में। सो इन निबन्धों की गहराई का सम्बन्ध इनकी व्याप्ति से भी है।
'पानी पर पटकथा' में संस्कृतनिष्ठ भाव बोध और पूर्वी उत्तर प्रदेश की क्षेत्रीय भदेसपन का सर्जनात्मक संश्लेष है। यह क्षमता विचारणीय है। जैसे विषयवस्तु की व्याप्ति में मिथक, जाति, देश-परदेश, धर्म, राजनीति, लोकजीवन, विचारधारा सब मिलकर पाठ को निर्मित करते हैं। वैसे ही रूपगत संश्लेष में संस्कृत, अवधी उर्दू, देहातीपन, मुहावरे, मिथकीयता विलन्दड़ीपना, ध्वनि-प्रवाह, घुले मिले हैं। उनका यथाप्रसंग यथारूप प्रयोग औचित्य करता है। वस्तु और रूप का यह साहित्य इस कृति के औचित्य बन्ध का रहस्य है।
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