रचनात्मक साहित्य की आत्मा के रूप में रस की प्रतिष्ठा है, जो सहृदय को आह्लादित करता है। रस को ब्रह्मास्वाद सहोदर कहा गया है। दर्शन में तत्त्व-साक्षत्कार कर साधक आनन्दानुभूति प्राप्त करता है। इस प्रकार रस और दर्शन दोनों में साक्षात्कार और अनुभूति की स्थिति प्रमुख है। साहित्यशास्त्र की बाह्याकृति छन्द, गुण, शब्दार्थ प्रयोग, प्रकृति आदि का सम्मिलित रूप है, किन्तु जब हम उसका आस्वादन करते हैं, तब वह आत्मा को असीम आनन्द प्रदान करता है, इसे ही साहित्यशास्त्री सहृदयाह्लादाकरक रचना कहते हैं। कोई भी रचना श्रोता अथवा, पाठक को तभी आह्लादित करती है, जब वह उसकी आत्मा का स्पर्श करती है। अतएव सूक्ष्मता से चिन्तन करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रत्येक विधा का मूलस्रोत दर्शन से ही निःसृत है क्योंकि साहित्यकार उन्हीं परिस्थितियों का रेखाङ्कन करता है, जो उसके आसपास बिखरी पड़ी है तथा जिनका मानव-जीवन से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में सम्बन्ध है। ज्ञान के बाह्य स्थूल रूप का निरन्तर अध्ययन करते हुए जब हम उसके चरमोत्कर्ष आन्तरिक सूक्ष्म तत्त्व की और अग्रसर होते हैं, तब मूल बिन्दुरूप दर्शन का स्वरूप हमारे समक्ष प्रकट होता है। इसी दृष्टिकोण को अन्तःकरण में अङ्कित करके यदि हम नाट्यशास्त्र प्रणेता आचार्य भरतमुनि से लेकर आधुनिक साहित्यसमीक्षकों की विविध रचनाओं का गहन, गम्भीर अध्ययन करते हैं, तब हमारे समक्ष यह स्थिति पूर्णतया स्पष्ट हो जाती है कि प्रत्येक रचनाकार की कृति का अन्तिम लक्ष्य दर्शन ही है। वह अपनी बात या विचार उसी चरम-स्थिति पर समाप्त करता है, जो परमपद है। यही स्थिति आत्मा को आनन्दित करती है। नाट्यशास्त्र निर्माता आचार्य भरतमुनि ने इस को प्रमुखता से स्वीकार किया है। रस-सम्प्रदाय के आचार्य रस को ही काव्य की आत्मा मानते हैं। यायावरीय राजशेखर ने भी "काव्य-पुरुष" के वर्णन प्रसङ्ग में "रस-आत्मा" कहकर रस को काव्यात्मा के रूप में सिद्ध कर दिया है। इसी प्रकार "रसो वै सः अर्थात्" रस ही ब्रह्म है, यह श्रुतिवाक्य और रसानुभूति ब्रह्मानन्दसहोदर है।
किसी भी साहित्यिक या काव्यशास्त्रीय कृति के पुनः पुनः अध्ययन के द्वारा जब पाठक अभिधाशक्ति की अपेक्षा व्यञ्जनाशक्ति से दृष्टिपात करता है, जो उस रचना के गूढ़तम तत्त्व की अनुभूति करता है और यह अनुभूति ही दर्शन के सूक्ष्मतम तत्त्व की पराकाष्ठा है। दर्शन मनुष्य के चिन्तन का उच्च धरातल तथा काव्य का श्रेष्ठ बिन्दु है। अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि साहित्य स्थूल-शरीर है और सूक्ष्मरूप में दर्शन उसकी आत्मा है। साहित्य यदि मनोहारी पुष्प है, तो दर्शन उसका सौरभ है, जो उसे विस्तार प्रदान करता है। साहित्यिक विधा अनन्त, अपार क्षितिज है, तब दर्शन उसकी उच्चतम स्थिति है। साहित्य अथाह, विस्तारित सिन्धु है, तो दर्शन उसकी वह गहराई है, जिसमें अनन्त सूक्ति-सम्पुट समाहित हैं।
आचार्य राजशेखर की कालावधि में समस्त आगमिक दर्शन अपने चरमोत्कर्ष पर थे। कवि ने अपनी विविध रचनाओं में इनका उल्लेख प्रस्तुत किया है। अतः यह शाश्वत सत्य है कि मानव जीवन का प्रत्येक पक्ष चाहे वह ज्ञानपक्ष हो अथवा क्रियापक्ष, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में दर्शन से प्रभावित है। विविध कालक्रम में यह धारण परिवर्तित होती रहती है, क्योंकि यही सृष्टिचक्र का नियम है और कोई भी मानवजाति इसके प्रभाव से अछूती नहीं रह सकती है। विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों के उद्भूत होने पर उनके भिन्न-भिन्न सिद्धान्त, प्रणाली आदि विकसित होते रहते हैं, किन्तु सभी सम्प्रदायों का परम लक्ष्य ब्रह्मानन्द की अनुभूति होता है। मार्गों में भिन्नता होते हुए भी लक्ष्य एक ही है।
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