प्राक्कथन रामचरितमानस उत्तर भारत में गीता की तरह पूजनीय और आदरणीय ग्रंथ है। जहां गीता मूल रूप से संस्कृत में होने के कारण आम लोगों में उतना प्रचलित नहीं है, जितना जनभाषा हिंदी में होने के कारण गोस्वामी तुलसीदास का रामचरितमानस । इस ग्रंथ में वेद, पुराण, उपनिषद आदि सभी ग्रंथो का वैचारिक दर्शन सब एक साथ और सामान्य जनभाषा में उपलब्ध होने के कारण यह ग्रंथ और लोकप्रियता के चरम पर पहुंच गया है, जिसका साक्षात् प्रमाण प्रत्येक शुभमांगलिक कार्यों में रामचरितमानस का अखंड पाठ का होना हैं। रामचरितमानस की ऐसी ही लोकप्रियता और अटूट विश्वास के वातावरण में मेरा बचपन व्यतीत हुआ। हमारे बड़का काका (स्वर्गीय रामविलास मौर्य) जो विद्यालय का मुंह तक नहीं देखे थे लेकिन रामचरितमानस पढ़ने की ललक में घर पर ही पढ़ना सीख कर ऐसा सस्वर रामचरितमानस का पाठ करते थे कि पास पड़ोस के कई लोग आकर बड़े श्रद्धा भाव से सुनते थे। बड़का काका के प्रभाव में आकर मुझे भी रामचरितमानस के प्रति लगाव हो गया और हाई स्कूल उत्तीर्ण करते-करते रामचरितमानस पढ़ने और समझने लगा। क्षेत्र में कहीं भी रामचरितमानस का पाठ होता तो आमंत्रित और अनामंत्रिात जाकर रात में वाचन करता। बी.एच. यू. से एम.ए. (दर्शनशास्त्र) और पी-एच.डी.. के दौरान वेदांत दर्शन में अद्वैतवेदांत, विशिष्टाद्वैत और शुद्धाद्वैत के अध्ययन के उपरांत यह जिज्ञासा हुई की क्या इन दर्शनों के आलोक में रामचरितमानस को देखा जा सकता है। विशिष्टाद्वैतिक परंपरा को आगे तक देखने पर ज्ञात हुआ कि रामानंदाचार्य जी ने विशिष्टाद्वैत के विष्णु और लक्ष्मी के स्थान पर राम और सीता को स्थापित करके राम भक्ति की परंपरा का एक सुदृढ़ आधर प्रदान किया हैं। रामानंद की राम भक्ति परंपरा आगे चलकर सगुण और निर्गुण राम भक्ति में विभाजित हो गयी। निर्गुण राम भक्ति के मुख्य भक्त कवि कबीर दास आदि हुए और सगुण राम भक्ति परंपरा में आगे चलकर गोस्वामी तुलसीदास हुए हैं। गोस्वामी तुलसीदास कभी राम को परमात्म तत्व बताते हैं तो कभी विष्णु का अवतार और कभी राम से ब्रह्मा विष्णु और शिव की उत्पत्ति बताते हैं। (शिव बिरंचि विष्णु भगवाना। जासु अंस से उपजहि नाना ।।) कभी आचार्य शंकर की भांति राम को ब्रह्म और जगत को माया सृजित मिथ्या बताते हैं (यन्मायावशवर्ति......., जो वैष्णवीय परंपरा के विपरीत प्रतीत होता है। इसी प्रकार के और बहुत सारे प्रश्न मेरे मानस पटल पर उभर कर मेरी दार्शनिक जिज्ञासा को और अधिक उद्वेलित करते हैं। दूसरी तरपफ परम अद्वैती आचार्य मधुसूदन सरस्वती द्वारा रामचरित की भूरि भूरि प्रशंसा करना (आनंद कानने हयस्मि मस्तुलसी तरु.....) एक परम अद्वैती विशिष्टाद्वैती परंपरा के ग्रंथ की भूरी भूरी प्रशंसा कर रहा है, तो इस ग्रंथ में विशिष्टाद्वैती परंपरा से हटकर अवश्य कुछ अलग बात है। इस जिज्ञासा को और अधिक बल तब मिला जब अध्ययन के दौरान इस बात के पुख्ता प्रमाण मिलने लगे कि रामचरितमानस का आधरभूत ग्रंथ रामभक्ति की अद्वैती परंपरा का महान ग्रंथ 'अध्यात्म रामायण' आदरणीय ग्रंथ है। इन सारी जिज्ञासाओं और प्रश्नो ने 'रामचरितमानस मंथन के वैचारिक रत्न' ग्रंथ सृजन के लिए सदैव प्रेरित करते रहे हैं। शंकर वेदांत पर पी-एच.डी. करने के उपरांत मेरे अध्ययन का विषय बने समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया। डॉ. लोहिया को कुजात गांधीवादी कहा जाता था। वे गांधीवादी विचारधारा के लकीर के फकीर न बनकर गांधी के केंद्रीय सिद्धांत के आलोक में समसामयिक व्याख्या करने के पक्षपाती थे। गांधी के सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था पर गोस्वामी तुलसीदास के रामराज्य की अवधरणा का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है, वे गोस्वामी तुलसीदास के रामराज्य को पौराणिकता की आवरण से निकालकर समसामयिक समतावादी सामाजिक और राजनैतिक मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित किये। गांधी जी की इसी रामराज्य की अवधरणा के आलोक में डॉ. लोहिया ने भारत माता से प्रार्थना करते हुए कहा था- 'हे भारत माता मुझे राम के कर्म की मर्यादा, कृष्ण के उन्मुत्तफ हृदय और शिव के असीमित व्यत्तिफत्व से रचो।' इसी संदर्भमें उन्होंने रामायण मेला की संकल्पना की थी, जिसमें विश्वविद्यालयों के बड़े-बड़े प्रोपफेसर को बुलाकर रामायण के विभिन्न विषयों पर समसामयिक व्याख्यान करवाने की योजना बनाई थी, लेकिन अल्पकाल में असामयिक मृत्यु होने के कारण उनकी यह योजना अधूरी रह गई। डॉ लोहिया का अध्येता होने के कारण उनकी अधूरी योजना भी इस ग्रंथ के प्रणयन में प्रेरक रही है। रामचरितमानस के माध्यम से गोस्वामी तुलसीदास पर अनेक प्रकार के आरोप प्रत्यारोप समय-समय पर लगाए जाते रहे हैं, जैसे बलिया के एक शुक्ला जी द्वारा लिखी गई पुस्तक हिंदू समाज के पथ भ्रष्टक तुलसीदास, नारी विरोधी तुलसीदास, जातिवादी तुलसीदास आदि अनेक प्रकार के आरोप। इन मिथ्या, एकांगी और संदर्भ से हटकर लगाए गए आरोपों से मन व्यथित होता रहा है। यह व्यथा भी इस ग्रंथ के प्रणयन का भी कारण बनी। रामचरितमानस की वैचारिक अवधरणा को समझने में फादर कामिल बुल्के के 'रामकथा', 'मानस पीयूष' और अमृतलाल नागर के 'मानस के हंस' ग्रंथ से स्पष्ट दिशा निर्देश मिले। योगेश्वर कृष्ण शिक्षा समिति उत्तरप्रदेश, टहर वाजिदपुर, आजमगढ़ की वैचारिक गोष्ठियों और योग शिविर की बौद्धिकी की परिचर्चाओं में रामचरितमानस के विभिन्न विषयों पर श्री परमहंस सिंह, श्री वीरेंद्र सिंह, श्री लाल बहादुर सिंह, श्री लाल बहादुर चौरसिया 'लाल', श्री रामचंद्र सिंह, श्री रमाकांत सिंह, श्री भुवनेश सिंह, श्री चंद्रकुमार सिंह, श्री कोमल सिंह, श्री राधेश्याम मौर्य, श्री विनोद मौर्य, श्री सदाबृक्ष मौर्य, श्री सिधरी यादव, श्री जयप्रकाश चौबे, श्री देवेंद्र चौबे, श्री अशोक चौबे, श्री संजय सिंह, श्री महेंद्र मौर्य आदि के शंका समाधन के पूछे गए प्रश्न भी इस ग्रंथ सृजन के प्रेरणा स्रोत रहे।
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