भगवान् बाहुबलि प्राच्य भारतीय संस्कृति के अनन्य प्रतीक हैं। उनके चरित के माध्यम से संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, कन्नड़, राजस्थानी एवं हिन्दी के कवियों ने समकालीन राजनैतिक, सामाजिक एवं पारिवारिक विविध पक्षों को मार्मिक शैली में मुखरित किया है। राजनैतिक दृष्टि से पोदनपुर में उनकी आदर्श राज्य-व्यवस्था सामन्ती युग में भी प्रजातन्त्रीय विचारधारा तथा शत्रु राजाओं के समक्ष बल, वीर्य, पुरुषार्थ एवं पराक्रम का प्रदर्शन अपना विशेष महत्त्व रखता है। सामाजिक दृष्टि से ब्राह्मी एवं सुन्दरी नाम की अपनी बहिनों के साथ उनका ७२ कलाओं का ग्रहण वस्तुतः उनकी स्वस्थ, बलिष्ठ, सुरुचि-सम्पन्न एवं समृद्ध समाज की परिकल्पना की प्रतीक है। इसीप्रकार उनका पारिवारिक-जीवन भी बड़ों के प्रति आदर-सम्मान की भावना के साथ-साथ स्वतन्त्र एवं स्वाभिमानी जीवन जीने का एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करता है। अध्यात्म-साधना की दृष्टि से भी उनका विषम-उपसर्ग-सहन तथा कठोर तपश्चरण करने का उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता। विश्व में इसप्रकार के उदात्त एवं सर्वांगीण जीवन बिरले ही मिलते हैं। जो होंगे भी, उनमें बाहुबलि का स्थान निस्सन्देह ही सर्वोपरि है। यहीकारण है कि एक ओर जहाँ युगों-युगों से साहित्यकार अपनी साहित्यिक कृतियों में उन्हें महानायक के रूप में चित्रितकर अपनी भावभीनी श्रद्धाञ्जलियाँ व्यक्त करते रहे, तो दूसरी ओर शिल्पकार भी अपने चातुर्य-पूर्ण शिल्प से विशाल मूर्तियों का निर्माण कर उनके चरणों में निरन्तर अपनी पूज्य बुद्धि व्यक्त करते रहे।
आधुनिक भाषा में कह सकते हैं कि भगवान् बाहुबलि भारतीय भावात्मक एकता के प्रतीक रहे हैं। यदि वे उत्तर भारत के अयोध्या में जन्मे और पोदनपुर, जो कि वर्तमान में सम्भवतः पाकिस्तान में कहीं पर स्थित है, से सम्बद्ध थे, तो उन्हें धवलयश एवं प्रतिष्ठा मिली दक्षिण भारत में। उत्तर भारतीय उस महापुरुष के चरित का अंकन, चाहे वह साहित्यिक हो और चाहे शिल्पकलात्मक, उसे प्रथमतः एवं अधिकांशतः दक्षिण भारतीयों ने ही विशेष रूप से किया है। उनकी लेखनी एवं छैनी से ही उनका काव्यात्मक, कलात्मक, आकर्षक एवं धवल रूप इतना भव्य बन सका कि उनको देखते, सुनते एवं पढ़ते ही भावुक हृदय पाठक भाव-विभोर हो उठता है।
आठवीं सदी के गंग-नरेश रायमल्ल के परम विश्वस्त मन्त्री महामति चामुण्डराय प्रथम महापुरुष थे, जिन्होंने अपनी तीर्थस्वरूपा माता की कल्पना को साकार बनाने हेतु सर्वप्रथम ५७ फीट ऊँची बाहुबलि की भव्य मूर्ति का निर्माण श्रवणबेलगोल (कर्नाटक) में करवाया। कला के क्षेत्र में यह युक्ति सुप्रसिद्ध है कि- "मूर्ति जब बहुत विशाल होती है, तब उसमें सौन्दर्य प्रायः नहीं ही आ पाता है। यदि विशाल मूर्ति में सौन्दर्य आ भी गया तो उसमें दैवी चमत्कार का अभाव रह सकता है, किन्तु गोम्मटेश्वर बाहुबलि की मूर्ति में तीनों तत्त्वों के मिश्रण से उसमें अपूर्व छटा उत्पन्न हो गई है।" (दे. श्रवणबेलगोल शिलालेख सं. २३४)।
हमारा जहाँ तक अध्ययन है, बाहुबलि की (अर्थात् गोम्मटेश्वर की) यही सर्वप्रथम निर्मित एवं उत्तुंगकाय सुन्दरतम प्राचीन मूर्ति है। इससे प्रेरित होकर धीरे-धीरे अन्यत्र भी बाहुबलि की मूर्तियों का निर्माण होने लगा। दक्षिण भारत की इस परम्परा ने उत्तर-भारत को भी पर्याप्त प्रेरित, प्रभावित किया है और अब यत्र-तत्र बाहुबलि की मूर्तियों का निर्माण होने लगा है। प्रारम्भ में ये मूर्तियाँ पाषाण से निर्मित होती थीं किन्तु अब धातु की भी प्रतिमाएँ बनने लगी हैं।
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