सहजोबाई (1725-1805 ई.) की स्त्री होने के कारण भारतीय भक्ति साहित्य में नाम गणना तो होने लग गई, लेकिन उनके जीवन और वाणी से संबंधित साहित्य अभी उपलब्ध नहीं है। रामचंद्र शुक्ल ने 'हिंदी साहित्य का इतिहास' के काल विभाजन में उत्तर मध्यकाल का नामकरण 'रीतिकाल' कर दिया, जिससे इस अवधि के दौरान सक्रिय सहजोबाई की वाणी का मध्यकाल के अन्य संत-भक्त कवियों के साथ यथोचित मूल्यांकन नहीं हो पाया। आशा है, यह पुस्तक इस अभाव की पूर्तिकारक सिद्ध होगी। सहजोबाई की वाणी भारतीय संत-भक्तों की वाणी में असाधारण और अलग इसलिए है कि यह सीधी, सरल और सहज संप्रेष्य है और इसमें ज्ञान, साधना और भक्ति का कोई आडंबर नहीं है। उनकी वाणी को इसीलिए 'सादगी की चमक' कहा गया है। अधिकांश भारतीय स्त्री संत-भक्तों की वाणी में सहजोबाई की वाणी इसलिए भी खास है कि इसमें उनके स्त्री होने का दैन्य और असहायता का भाव नहीं है, जबकि अन्य भारतीय स्त्री संत-भक्तों के यहाँ यह प्रायः मिलता है। यह भी चौंकाने वाली बात है कि उनकी वाणी में व्यक्त उनके अनुभव और विचार तब के हैं, जब वे केवल 18 वर्ष की थीं।
सहजोबाई का जोर सदाचार पर है, जिसकी हमारे समय और समाज को फिलहाल सबसे अधिक जरूरत है। उनकी वाणी जीवन का एक मूल्य निर्भर आदर्श प्रस्तुत करती है। उनके आदर्श जीवन के मूल्य पारलौकिक सरोकार और चिंता से जुड़े होने के साथ ऐहिक मनुष्य के दैनंदिन की जीवन की बेहतरी के लिए भी है। उनका ईश्वर भी उनके मरणधर्मा गुरु से अलग नहीं है। वे अपनी वाणी में जीवन के सभी चरणों-बचपन, यौवन और बुढ़ापे की अवस्थाओं के यथार्थ का चित्र खींचकर सचेत करती हैं। उनकी वाणी बहुत गूढ़ और दार्शनिक नहीं है, लेकिन जीवन के बहुत समीप है।
सहजोबाई की वाणी की पांडुलिपियाँ दिल्ली स्थित उनकी पीठ में संग्रहीत हैं।
उनके दो संकलन बहुत पहले, 1922 ई. में बेलवेडियर प्रेस, प्रयाग और 1915 ई श्री खेमराज कृष्णदास, बंबई (अब मुंबई) 1922 ई. से प्रकाशित हुए। बाद में प्रकाशित उनकी वाणी इन्हीं आरंभिक दो संकलनों पर आधारित है। ये दोनों संकलन उस समय प्रकाशित हुए, जब हिंदी में मुद्रण की तकनीक का पूरी तरह विकास नहीं हुआ था, इसलिए इनमें वर्तनी की कई त्रुटियाँ रह गई हैं। यहाँ इन त्रुटियों को दूर करने का विनम्र प्रयास है। सहजोबाई की भाषा बहुत सरल साधु भाषा है, उनके जीवन का अधिकांश समय दिल्ली में निकला, इसलिए इस पर खड़ी बोली का भी प्रभाव है। उनकी भाषा की इस विशेषता ने भी उनकी वाणी के पाठ के परिष्कार में मदद की है।
सहजोबाई की वाणी को पाठ्यक्रमों में जगह नहीं मिल पाई, इसलिए इसकी उपलब्धता बहुत सीमित है। सहजोबाई के जीवन और वाणी संबंधित साहित्य जयपुर के शुक संप्रदाय के पीठाधीश्वर आचार्य श्री अलबेली माधुरी शरण ने सुलभ करवाया। सहजोबाई चरणदास की शिष्या थीं। चरणदास ने अपने जीवनकाल में अपने मत को सांस्थानिक रूप दे दिया था, जो शुक (चरणदासी) संप्रदाय के रूप में प्रसिद्ध हुआ और देश भर में इसके कई थाँबे (केंद्र) कायम हुए, जिनमें जयपुर भी एक है। जयपुर के केंद्र की खास बात यह है कि इसने शुक संप्रदाय का अधिकांश दुर्लभ साहित्य प्रकाशित कर दिया है। श्री अलबेली माधुरी शरण और उनके सुपुत्र श्री प्रवीण (बड़े भैया) से परिचय संत साहित्य के विद्वान् और राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के प्रो. अनिल जैन के माध्यम से हुआ। लेखक आचार्य श्री अलबेली माधुरी शरण, उनके सुपुत्र श्री प्रवीण (बड़े भैया) और प्रो. अनिल जैन के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता है।
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