जैनधर्म का वर्तमान में सर्वजनप्रसिद्ध ग्रन्थ 'तत्त्वार्थसूत्र' कहा जाता है, जिसकी रचना ईसा की दूसरी शताब्दी में आचार्य उमास्वामी महाराज ने की थी। इस ग्रन्थ पर अब तक बीस-बाईस टीकायें हो चुकी हैं। सर्वप्रथम टीका 'गन्धहस्तिमहाभाष्य' के नाम से जानी जाती है, जो वर्तमान में अनुपलब्ध है। उपलब्ध टीकाओं में सबसे प्राचीन टीका सर्वार्थसिद्धि है, जो आचार्य पूज्यपाद की सर्वश्रेष्ठ कृति मानी जाती है।
'सर्वार्थसिद्धि' टीका की मुख्य विशेषता, तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र "सत्संख्या-- -"की बृहद् टीका है। यह टीका इतनी गहन तथा जटिल है कि वर्तमान के दो-चार विद्वानों के अतिरिक्त इस सूत्र की टीका शायद ही किसी ने पढ़ी हो / समझी हो। मैंने स्वयं जब अपने शिक्षागुरु पण्डित हुकमचन्द जी मोठ्या, बयाना वालों से सर्वार्थसिद्धि पढ़ी थी, तब उन्होंने इस सूत्र की टीका पढ़ाने से यह कहकर इंकार कर दिया था कि उनको भी मुरैना विद्यालय में इसको नहीं पढ़ाया गया था। परन्तु बड़े परिश्रमपूर्वक जब इस सूत्र की टीका का अध्ययन किया गया तब मुझे छह माह लगे थे। फिर भी अस्सी प्रतिशत विषय ही स्पष्ट हो पाया था। पुनः जब इस सूत्र की टीका का अध्ययन दोबारा किया गया, तब चार माह और लगे, फिर भी कुछ विषय स्पष्ट नहीं हो सके थे। वास्तव में इस प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र की टीका का अध्ययन अत्यन्त क्लिष्ट है, परन्तु अत्यन्त उपयोगी भी है। वर्तमान में जब श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर के छात्रों को यह पढ़ाया जाता है, तब बहुत आनन्द आता है। आचार्य पूज्यपाद ने इस सूत्र की टीका महान् ग्रन्थराज 'श्री षट्खण्डागम' के आधार से की है। वास्तव में आचार्य पूज्यपाद के समक्ष श्री धवला टीका तो उपलब्ध ही नहीं थी, क्योंकि यह तो आठवीं / नौवीं शताब्दी की रचना है। अतः षट्खण्डागम के आधार से ही पूज्यपाद स्वामी ने इस सूत्र की टीका लिखी है।
इस टीका के अध्ययन में अभी तक बहुत से विषय स्पष्ट नहीं हो पाते थे। यद्यपि सर्वार्थसिद्धि के अन्त में जो आचार्य प्रभाचन्द्र जी के टिप्पण दिये हैं, उनका सहयोग लेने पर कुछ विषय ज्ञात हो जाते थे, फिर भी बहुत से अन्य विषय अस्पष्ट ही रहते थे। आचार्य विद्यासागर जी महाराज के परम प्रभावक मुनि श्री प्रणम्यसागर जी महाराज ने इस सूत्र की टीका का सरलीकरण करके जो यह ग्रन्थ लिखा है, उसके लिए हम उनके चरणों में कोटिशः नमोऽस्तु करते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व के आधार से सभी गुणस्थान और मार्गणाओं को स्पष्ट किया है। इन आठ अनुयोगों में से सत्, भाव तथा अल्पबहुत्व का वर्णन तो सरल था, अतः वह तो मूल ग्रन्थ के अनुसार ज्यों का त्यों ही दिया है, परन्तु अन्य पाँच अनुयोगों को स्पष्ट करके अतिगहन विषय को सर्वोपयोगी बना दिया है। विभिन्न स्थानों पर रेखाचित्र भी दिये हैं, जिनसे विषय अत्यन्त सरल तथा ग्राह्य हो जाता है।
विशेष तौर पर प्रस्तुत पुस्तक में-
संख्या प्ररूपणा के अन्तर्गत अनन्तानन्त, असंख्यात तथा असंख्यातासंख्यात को अच्छी तरह बताया है।
क्षेत्र प्ररूपणा के अन्तर्गत श्रेणी, प्रतर आदि आठ राशियों को तथा केवली समुद्धात में रुद्ध क्षेत्र का वर्णन विशेषता से समझाया है।
स्पर्शन प्ररूपणा के सरलीकरण के अन्तर्गत सासादन सम्यग्दृष्टि के स्पर्शन का स्पष्टीकरण।
काल प्ररूपणा में अन्तर्मुहूर्त गिनने का तरीका, योग-गुणस्थान आदि के परिवर्तनों की व्याख्या, लेश्याओं के जघन्य तथा उत्कृष्ट अन्तर का दिग्दर्शन।
अन्तर प्ररूपणा में अन्तर्मुहूर्त कैसे लगाये जायेंगे, रेखाचित्रों द्वारा अन्तर को समझाने का ढंग अत्यन्त प्रशंसनीय है।
इस ग्रन्थ में इन सूत्रों से सम्बन्धित आचार्य प्रभाचन्द्र जी के टिप्पण हैं, जो कि सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में परिशिष्ट 2 में संलग्न हैं। इन टिप्पणों का भी इस कृति में यथास्थान समावेश किया गया है, जिससे यह विषय पुष्ट भी हुआ है और उन टिप्पणों का संरक्षण भी।
इस प्रकार विषयों को बहुत सरल करके समझाया है।
पूज्य महाराजश्री ने जिन विषयों का विशेष खुलासा किया है, ये ही विषय सरलता से समझ नहीं आते थे। अब इस पुस्तक के प्रकाशित होने से सर्वार्थसिद्धि के प्रथम अध्याय का 8वाँ सूत्र कठिन नहीं रह पायेगा। सामान्य ज्ञानधारी स्वाध्यायी भी सरलता से इन विषयों को हृदयङ्गम कर सकेंगे।
पूज्य मुनिश्री की विशेषता है कि वे उन्हीं विषयों को स्पर्श करते हैं जो अभी तक अस्पृष्ट रहे हों, जैसे आपने आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित शीलपाहुड़ तथा लिंगपाहुड़ की टीका लिखी है। संतकम्मपंजिया जैसे क्लिष्ट ग्रन्थ, जिसकी टीका करने का साहस आज तक किसी ने नहीं किया था, उसकी टीका की है आदि।
पूज्य मुनि श्री 108 प्रणम्यसागर जी महाराज के चरणों में कोटिशः नमोऽस्तु करता हुआ सविनय निवेदन करता हूँ कि हे गुरुदेव ! हम अज्ञानियों को प्रबुद्ध करने के लिए इसी प्रकार आशीर्वाद स्वरूप ग्रन्थों की रचना करते रहें। प्रभु से प्रार्थना है कि आपके क्षयोपशम में निरन्तर वृद्धि होती रहे।
इस ग्रन्थ के प्रकाशन में श्री प्रदीपकुमार सरिता जैन, संचित जैन, मुकेश जैन, अल्का जैन, निकिता एवं टीना जैन गांधीधाम (गुजरात) ने पुण्यार्जन प्राप्त किया है, जो विशेष धन्यवाद के पात्र हैं। अक्षर-संयोजन के लिए श्री शिखर चन्द जैन, मालपुरा (राजस्थान) भी धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंने अत्यन्त परिश्रम करके इस ग्रन्थ का समस्त टंकण कार्य सम्पन्न कराया है।
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