| Specifications |
| Publisher: Adivasi Lok Kala Evam Boli Vikas Academy And Madhya Pradesh Cultural Institution | |
| Author Edited By Dharmendra Pare | |
| Language: Hindi | |
| Pages: 86 (With Color Illustrations) | |
| Cover: HARDCOVER | |
| 9x11 inch | |
| Weight 550 gm | |
| Edition: 2023 | |
| ISBN: 9789392148255 | |
| HBL899 |
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भारत के हृदयस्थल में स्थित मध्यप्रदेश के 52 जिलों के मंदिरों का यह स्वरूपगत अवलोकन मात्र है। अवलोकन इसलिए कहा है कि मंदिरों अथवा देवालयों के विविध धार्मिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, शिल्प और कलागत आयाम एक दीर्घ और गहन अध्ययन की अपेक्षा रखते हैं। विशिष्ट मंदिर के गहन और गूढ़ पक्षों को उद्घाटित करना एक साधना और जीवनपर्यंत अध्ययन का भी विषय है, इसलिए अवलोकन शब्द यहाँ समीचीन प्रतीत होता है। ये मंदिर, देवस्थल और लोकतीर्थ अपने माहात्म्य, पौराणिकता और ऐतिहासिकता से सिक्त हैं। भविष्य में अध्ययन का यह भी विषय हो सकेगा।
ये मंदिर ग्रामों, नदियों, पर्वतों, घाटियों, निर्जन वनों और यहाँ तक कि गिरि-कंदराओं में भी अवस्थित हैं। वस्तुतः मंदिरों की स्वरूपगत और मान्यतागत जानकारी एक जगह उपलब्ध नहीं थी। किसी प्रदेश के समग्र जिलों की भौगोलिक और सांस्कृक्तिक सीमाओं के अंतर्गत किया गया संभवतः यह प्रथम संचयन भी है। हम सोचते हैं, समग्र भारत को केन्द्र में रखकर ऐसा एक व्यापक प्रयास भी होना चाहिए। मंदिरों के शैलीगत इतिहास के काल क्रमानुसार और प्रख्याति की दृष्टि से तो कतिपय अध्ययन उपलब्ध हैं, पर स्वरूप को केन्द्र में रखकर किया गया यह प्रथम अभ्यास हो सकता है।
शासन-प्रशासन द्वारा अपने स्तर पर धार्मिक पर्यटन की नजर से अधोसंरचना, सड़कों, विश्रामगृहों, आवागमन, परिवहन की तो व्यवस्था हो ही रही है किन्तु मंदिरों की, लोकतीर्थों की, मान्यता और विश्वासगत माहात्म्य तथा धारणा, पौराणिकता और संस्कृतिपरक संज्ञान का अपना महत्त्व है जो मंदिरों के निर्माण के मूल में ही सनिहित है। हमने प्रांत के 52 जिलों के 52 सुयोग्य सर्वेक्षणकर्ताओं को चुना। उनसे अकादमी के उद्देश्य और इस महती परियोजना पर बातचीत की। सर्वेक्षणकर्ताओं ने स्थल के भौतिक अवलोकन और साक्षात्कार से अपने सर्वेक्षण संकलन को पूर्ण किया। कुछ सर्वेक्षणकर्ता अपनी मति और गति से गहराई तक भी गये। उन्होंने पौराणिक, पुरातात्त्विक महत्त्व की संसूचनाओं को भी स्पर्श किया, जिनका यहाँ यथायोग्य उल्लेख भी किया गया है। ये मंदिर मात्र पाषाणों, मिट्टी और ईंट-गारे की निर्मिति भर नहीं है। तत्कालीन समुदाय के परिवेश को आख्यानकों और साहित्य विधाओं की कथावस्तुओं में तो देखा जा सकता है किन्तु समाज का मूर्तिमान स्वरूप प्रतिमाओं, भित्तियों, आधारों, आलंबनों में ज्यादा स्पष्ट दिखता है। इन मंदिरों से अध्येता वस्त्र आभूषण, संगीत, वादन, कला और शिल्पगत अध्ययन भी कर सकते हैं। इन मंदिरों में रामायण, महाभारत काल से लेकर पुराणों और लोकाख्यानों तक के कथा-दृश्य खोजे जा सकते हैं। मोटे रूप में ये मंदिर तत्कालीन समय और समाज की सांस्कृतिक चेतना के साक्ष्य समेटे हुए हैं और समय के साथ हुए बदलाव भी इनके अध्ययन से चौन्हें जा सकते हैं। प्रागैतिहासिक काल के शैलचित्रों में भी मातृ देवी और शिव के अंकन प्राप्त होते हैं। इससे यह तो पता चलता है कि स्वरूपों की दृष्टि से शिव और देवी तुलनात्मक रूप से कहीं अधिक पूर्ववर्ती स्वरूप हैं। टेराकोटा की मातृदेवियों से यह भी जात होता है कि हमारे प्रदेश में बहुत पहले से मातृदेवियों का पूजना लोक समुदाय में प्रचलित रहा है। मातृदेवियों की प्रतिमाएँ महेश्वर, नावड़ाटोली, कायथा, एरन से मिली हैं। यह अध्ययन वास्तुकला और शिल्पकला का अध्ययन भी नहीं है। ऐतिहासिकता के सुनिश्थितिकरण का प्रयास भी नहीं है। मूर्ति लक्षण, चित्रण केन्द्रित अध्ययन भी नहीं है। उक्त सबकुछ नहीं होकर भी वस्तुस्थिति की जो तथ्यात्मक जानकारियाँ सहज रूप से सर्वेणकर्ताओं ने अपनी सामान्य या विशिष्ट समझ अथवा पूर्व संचित जान के आधार पर दर्ज की हैं तो वह अनुपयोगी नहीं कही जा सकती। आगामी अध्येताओं के लिए वह विशेष उपयोगी हो सकेगी। ये मंदिर हमारे धर्म और संस्कृति सातत्य को तो बताते ही हैं। प्रदेश की वास्तुकला और मूर्तिशिल्प की परंपरा का भी कहीं न कहीं ज्ञान कराते हैं। कहीं भवनों के विन्यास विशिष्ट हैं तो कहीं मूर्ति-खम्ब पर अंकित आख्यान। समस्त मंदिर प्रीतिकर हैं। उनका परिवेश आनंद की रचना करता है। कुल मिलाकर यह भूमि और इसकी संस्कृक्ति विशिष्ट है। कई मंदिरों से आख्यान/कथानकों की सूचना भी मिलती है, इसलिए हमने अपने सर्वेक्षणकर्ताओं से आग्रह किया था कि वे अपने सर्वेक्षित मंदिर से सम्बन्धित लोकश्रुतियों, कथानकों का भी संकलन करें। कहीं ये कथानक मिले तो बहुत सी जगह नहीं भी। जहाँ मिल सके वे मूल्यवान सिद्ध होंगे। वे भारत के प्राच्य इतिहास और पुरा काल के, उस सांस्कृतिक वैभव के कुछ संकेत तो देते चल ही रहे हैं। कुछ स्थानों से महाभारत और रामायण काल के पुण्य पात्रों के संदर्भ भी जुड़े हुए बताये गये हैं। कुछ प्रसिद्ध मंदिरों की प्रतिमाओं की स्थापना घुमन्तू बंजारों या नटों के द्वारा भी बताई गई है। यह लुप्तप्राय हो चुकी स्मृतियों को शेष ध्वनि कही जा सकती है। अध्येता आयें और एक-एक ध्वनि को अक्षरों शब्दों और पूरी इबारत में परिवर्तित करें।
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