प्रकृक्ति के किसी अंश ने चाहा होगा कि रेगिस्तानी इलाकों में रहने वाले लोगों से जुड़ी एक खास परंपरा को कलमबद्ध किया जाए। जब मैंने इस विषय पर लिखने का निर्णय लिया और रिसर्च शुरू की उसके बाद समूचे देश में और खासतौर पर उत्तर भारत में इसको मनाए जाने के सबूत मिलने लगे। मुझे इस प्रोजेक्ट को लेकर अपनी शोध पर विश्वास और गहरा होने लगा कि प्राचीनकाल से चली आ रही परंपराओं को केन्द्र में रखकर कुछ पहचाने, कुछ गढ़े हुए किरदारों के साथ इस विषय ने उपन्यास लिखने के लिए मेरा चुनाव किया है।
इतिहास की सीढ़ियाँ चढ़कर हम वर्तमान की ज़मीन पर खड़े हैं यहाँ भी बीता समय परंपराओं के रूप में हमारे साथ चल रहा है। समय के बदलाव के बीच जो संस्कार इक्कीसवीं सदी तक किसी-न-किसी रूप में देश के अलग-अलग हिस्सों में अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं, उनकी नींव समाज में कितनी गहरी हैं, यह समझना आसान बेशक ना हो, पर मुश्किल तो बिल्कुल नहीं है।
जो पीढ़ी गर्मी सर्दी की छुट्टियों में नानी दादी से किस्से-कहानियाँ सुनकर बड़ी हुई है, उनके साथ सुनी हुई लोककथाएँ भी जीवित रहने वाली हैं। इस पीढ़ी के साथ जितनी लोककथाएँ जीवित रहेंगी उतने ही वे रिश्ते और रिश्तों को पहचान देने वाले इंसान जीवित रहेंगे, जिन्होंने उन किस्सों को माला के रूप में पिरोकर नन्हें शिशुओं को वे मालाएँ पहनाई। मेरी स्मृति में अंकित वाचिक परंपराओं में रचे-बसे अनगिनत किस्से हैं। ऐसे किस्सों की आँच ने गर्मी की तारों भरी ठंडी रातों में, आँगन में चारपाई पर लेटकर आसमानी तिलिस्म में, किरदारों को कल्पनाओं में जीते हुए महसूस किया था। ऐसी ही कल्पनाएँ सर्द मौसम में नाना-नानी की रजाई में कुनमुनाते हुए लोककथाओं की नायिका होने के भ्रम को सीजने तक पकाया करती थी। ना जाने कब इन किस्सागो रिश्तों ने बाल-मन में तलवार उठाने, राइफल चलाने, घोड़े दौड़ाने की उत्कंठा भी जगाई जो आगे चलकर कलम धामने तक भटकाव झेलती रही। मानना होगा कि मेरे भीतर के भटकाव ने उपन्यास को अंत तक पहुँचाने में बड़ा किरदार निभाया।
'शुद्धि' ऐसे ही जाड़े की गर्माहट वाले रिश्तों की देन है जो अपने किस्सों के साथ मेरे भीतर आज भी जीवित है। सीमावर्ती राजस्थानी गाँव में जहाँ दोनों मौसम अपने चरम पर होते हैं, उपन्यास लिखते हुए उसी बालू माटी के धोरों की ठंडक जो नाना-नानी की यादों में बसी थी, और बीता बचपन दोबारा जीने की उत्कंठा में जिस्म झुलसा देने वाली तपन हर पल महसूस होती रही। गाँव का लंबा-चौड़ा घर, कल्पनाओं की उड़ान जैसे अगले पिछले दो-दो आँगन, बाड़े में बंधी गायें और एक लंबी-चौड़ी जोइंट फेमली जिसे जी-कर कलमबद्ध कर सकी इतिहास के उस वर्तमान को जो बदलाव की मार झेलते हुए भी अपने आपको बचाए रखने में अब तक सफल रहा है। यह सब उपन्यास की ज़मीन बना मगर यह तो सिर्फ शुरुआत थी अभी तो पूरी-की-पूरी इमारत खड़ी होनी थी।
उपन्यास की कथा राजस्थान की एक ऐसी परंपरा पर केंद्रित है जो प्राचीन काल से आज तक अपने मूलरूप में निभाई जा रही है। लिखना शुरू करने से पहले और उपन्यास पूरा होने तक मैं जितनी रिसर्च करती गई, उतनी ही हैरान भी हो रही थी। एक परंपरा से जुड़े अन्य अनेक रिवाज़ जिनमें समय ने उनके नाम और स्वरूप में बदलाव करवा दिए थे मगर वे अपना वजूद आज भी बनाए हुए हैं।
उच्चारण और वर्तनी में क्लिष्ट समझकर जिसे छोड़ दिया गया था, उसकी जगह गढ़ी गई नए नामकरण वाली अपभ्रंश भाषा के बीच से ऐसे इतिहास को खंगालना जिसका कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है, बहुत मेहनत का काम था। अलिखित दस्तावेज़ जो स्थानीय समाज के अलग-अलग उम्र के लोग जिनमें युवाओं और बुजुर्गों से लेकर उम्रदराज़ स्त्री-पुरुष तक, सब शामिल थे। अलग-अलग लोगों से कई-कई बार पता करने के बाद उन्हें लिखा। हर एक कृति को तसल्ली होने तक बार-बार लिखने की अपनी आदत ने इसमें अनेक बदलाव करवाए। जिसमें महत्वपूर्ण थी वह परंपराएँ जो पाखंड साबित कर बदलाव झेलते समय में नकार दिए जाने से बची हुई हैं। इसे लिखते हुए हर बार एक ही बात मेरे दिमाग में घूमती रही 'आखिर में सच ही बचता है।'
हम सामाजिक प्राणी हैं इसीलिए हमारी हर कामयाबी में अपनी मेहनत के साथ अपनों का सहयोग भी जुड़ा रहता है। इस सहयोग में प्रोफेसर सत्यकेतु सांकृत और प्रोफेसर अजय नावरिया जी का नाम सबसे पहले आएगा जिन्हें प्रकाशन से पहले मैंने पांडुलिपि भेज दी थी। आप दोनों की महत्वपूर्ण सलाह और सुझाव से उपन्यास का वह स्वरूप बना जो पाठकों के हाथ में है। इसी क्रम में युवा साहित्यकार और समीक्षक डॉ. रेनू यादव का नाम भी आएगा जिन्होंने इसे पढ़कर लंबी प्रतिक्रिया दी थी। उपन्यास के किरदारों से जुड़े कानूनी पेचोखम की सटीक जानकारी के लिए युवा अधिवक्ता शांतला सांकृत कीर्ति का योगदान बहुत अहम रहा। 'शुद्धि' उपन्यास की प्रूफ रीडिंग, एडिटिंग और व्याकरण की शुद्धता जाँचने की जिम्मेदारी निभाई गीतकार मनोज कुमार मनोज जी ने। उपन्यास के फाइनल स्वरूप तक पहुँचने में आप सबके सहयोग के लिए आभार प्रकट करती हूँ। रचना अपने पाठकों के हाथों में पहुँचकर ही सफल होती है। इस क्रम में क्यान फाउंडेशन और अशोक गुप्ता जी विशेष धन्यवाद के पात्र हैं जो निरंतरता से साहित्य और समाज सेवा में लगे हुए हैं।
समय के बदलाव के साथ परंपराओं के मूल स्वरूप और उनके नामकरण में बहुत सारे बदलाव आए हैं। आज के समाज और नई पीढ़ी के युवा पिछले अढ़ाई दशकों में हुए द्रुत बदलाव के बीच परंपराओं को किस तरह देख रहे हैं या मान रहे हैं, इन मुद्दों के रिसर्च में बीकानेर से आदरणीय दीनदयाल सिंह यादव और श्रीमती चंद्रकला यादव (माम-मामीजी) ने ग्राउंड जीरो से जो मदद की, उसके लिए उनका विशेष धन्यवाद। उस धरती से जुड़ाव मेरे जन्म से जुड़ा है, मेरी माँ से जुड़ा है। शिशु जीवन, लड़कपन और युवावस्था की साक्षी भी वही रेतीली धरती है जो उपन्यास की ज़मीन है। इस सच्चाई से परिचित होते हुए कि हम अपनी जन्मदात्री के ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकते, माँ को और राजस्थान की धरा को नमन करने का यह मेरा अदना सा प्रयास है।
मेरी बेटियाँ शिखा और शिवानी का योगदान मेरे लेखन में हमेशा अलग रहेगा। जहाँ शिखा विदेशी धरती से हर दिन 'क्या चल रहा है आपके नॉवेल में?'
पूछ कर अपनी रुचि बताती है वहीं शिवानी बिटिया उपन्यास के हर आखर की पहली पाठक है। बहुत धैर्य और संयम वाली बच्ची का योगदान तब और बढ जाता है जब उपन्यास के किरदारों को लेकर मेरा मन उलझन में होता है। वही उस अलग तरह की शून्यता से मुझे बाहर निकालती है। पति कर्नल पुष्पेन्द्र कुमार यादव का मूक समर्थन मेरे लेखन के साथ हमेशा रहता है। अंत में भारतीय ज्ञानपीठ के समस्त पदाधिकारियों का हृदय से आभार जिन्होंने उपन्यास के विषय और मेरे लेखन पर भरोसा करते हुए इसे प्रकाशित करने की जिम्मेदारी उठाई।
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