लेखक परिचय
कुशलेन्द्र श्रीवास्तव हमारे अंतर्मन में निहित कुरूक्षेत्र के मैदान में एक युद्ध गतिशील रहता है। हमारे ही अंदर कौरव और पांडव सदृश्य दो सेनाएं आपस में संघर्ष करती महसूस होती हैं और अनेकों बार अपने ही अंदर कृष्ण की जीवंतता का अनुभव भी होता है, जो हमें केवल 'कर्म' करते रहने का उपदेश दे रहे होते हैं। हताश, निराश या उत्साहित मन में यह उपदेश हमें सकारात्मक ऊर्जा से भर देता है, यही तो कारण है कि "अपने मन की सुनो" के उपदेश हम बचपन से सुनते आ रहे हैं। अंतर्मन के इन भावों के इस प्रतिबिम्ब में ही साहित्य आकार लेता है और शब्दों का वसन पहन कागज पर शब्दों का रेखाचित्र बनाता जाता है। सृजन की विधा या शैली कुछ भी हो पर इतना तो स्पष्ट है कि वह मन में उठ रहे तूफान को एक ठौर देती है। कहानियां अब काल्पनिकता की ओट में सृजित नहीं होती.... हमारी कल्पनाशीलता क्षीण होती जा रही है अब जीवतंता चाहिए, जो पढ़ने वालों के सामने सजीव चित्र प्रस्तुत कर सके।
पुस्तक परिचय
उम्र के शिखर पर बढ़ते कदम अक्सर विगत की निकटता का अनुभव करते हुए आगे बढ़ते हैं। विगत की निकटता कभी विगत को अतीत नहीं होने देती। श्याम टाकीज हमारे शहर गाडरवारा की उन धरोहरों में शामिल है जिसकी अंतरंगता में पुरानी पीढ़ी का बचपन गुजरा है। ऐसा लगभग हर एक शहर में होता रहा है। एक टाकीज और बेतरतीब बसाहट, हर बसाहट के साथ मोहल्ले का कोई न कोई अघोषित नाम जो उस मोहल्ले की ओर और वहां रहने वालों की पहचान बन जाता रहा है। एक नदी, एक शहर और कई गलियां, हर गली के किसी न किसी मकान में कोई न कोई परिचित रहता ही था, क्योंकि तब इंसानों की भीड़ कम थी और इंसानियत इन घरों में बसती थी। आवागमन के साधन कम थे तो पैदल दूरी नाप ली जाती थी और चुल्लू में पानी भर कर अपने कंठ की प्यास बुझा ली जाती थी। हर कोई अपना होता तो उनके साथ कोई न कोई स्मृजुड़ी होती थीं, इस कारण समान लिया जाता है कि अहानी ही होती है।
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