पुस्तक परिचय
चर्चित लेखक समीक्षक हरिनारायण ठाकुर की दलित साहित्य पर एक और महत्त्वपूर्ण कृति है 'दलित साहित्य का समाजशास्त्र'। बकौल कमलेश्वर, "यह पुस्तक केवल दलित साहित्य ही नहीं, बल्कि दलित चेतना की पृष्ठभूमि की बेचैनियों और उसके प्रभावों, आन्दोलनों और रचनात्मकताओं का सविस्तार विश्लेषण है। विशाल आकार की इस पुस्तक को पढ़कर कोई भी 'दलित' की सम्पूर्ण अवधारणा को समुचित तरीके से समझ सकता है। पुस्तक का नाम भले ही 'दलित साहित्य का समाजशास्त्र' हो. लेकिन इसमें दलित समाज का साहित्यशास्त्र भी है। वास्तव में यह शोधग्रन्थ भी है और इसलिए इसमें जो खंड बनाए गए हैं, मसलन विमर्श खंड, इतिहास खंड, रचना और मूल्यांकन खंड, वे दलित चेतना की बहुआयामी विकास-कथा को दर्शाते हैं। दलित विषयक ऐसी अन्य कोई विशद पुस्तक अभी तक मेरी नजर से नहीं गुजरी है। हिन्दी में इतना विरल और ऐसा गम्भीर कार्य पहली बार हुआ है।
वास्तव में ये दलित साहित्य ही है, जिसके अध्ययन के पश्चात् किसी भी समाज का वास्तविक अध्ययन हो सकता है। वस्तुतः सामाजिक अत्याचार, अन्याय और शोषण केन्द्रित अमानवीय भेदभाव वाले वर्णवादी, दार्शनिक और पौराणिक तत्त्वज्ञान के इस दुर्ग को महात्मा गाँधी, प्रेमचन्द और निराला आदि की चेतावनियाँ हिला नहीं पायी थीं, अन्ततः इसे अम्बेडकरवादी दर्शन, प्रतिपक्षी विचार और रचना ही ध्वस्त कर सकती थी। यही हुआ भी; मराठी, कन्नड़, मलयालम, कोंकणी, कच्छी, पंजाबी, हिन्दी आदि भाषाओं में यह रचना अमानवीय उत्पीड़न और दमन से उपजी है, इसलिए यह शत-प्रतिशत मानवीय और सामाजिक है। ... दलित लेखन अपने प्रत्येक रूप में विचारशील और रचनात्मकता में पूर्णतः व्यावहारिक लेखन है। यह नैतिकतावादी साहित्य का प्रतिपक्ष नहीं, बल्कि पूरक है।... लेखक ने तमाम ग्रन्थों और सन्दर्भों को छानते हुए इन्हीं मन्तव्यों को प्रतिपादित किया है।"
(पुस्तक की भूमिका से)
पाठकों की समकालीन रुचि और जरूरतों के अनुरूप व्यापक समाजशास्त्रीय विमर्श पर केन्द्रित इस पुस्तक को प्रकाशित करते हुए भारतीय ज्ञानपीठ को प्रसन्नता है।
लेखक परिचय
जन्म : 23 फरवरी 1956, खैरबा (मेजरगंज), सीतामढ़ी (बिहार)।
शिक्षा: एम.ए. (हिन्दी) प्रशिक्षित, पी-एच.डी., कम्प्युटर ई-लर्निंग।
लेखन: वर्ष 1994 से पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन एवं रेडियो, दूरदर्शन पर वार्ताएँ प्रसारित।
प्रकाशन : बिहार में अति पिछड़ा वर्ग आन्दोलन (2007), हिन्दी की दलित कहानियाँ (2008), भारत में पिछड़ा वर्ग आन्दोलन और परिवर्तन का नया समाजशास्त्र (2009)1
पुस्तकों में रचना-संकलन डॉ. भगवती शरण मिश्र के साक्षात्कार, (2000), पत्रकारिता : उद्भव, विकास और अवसर (पाठ्य-पुस्तक) (2002), प्रेमचन्द : दलित प्रश्नों के घेरे में (2008), प्रेमचन्द की रचनाओं में व्यक्त जातीय अस्मिता और दलित प्रश्न (2008)।
सम्पादन सहयोग : 'युद्धरत आम आदमी' का भंगी
विशेषांक 'मल-मूत्र ढोता भारत' (2009), विश्व-विद्यालय एवं महाविद्यालय स्तरीय पत्रिकाओं, राष्ट्रीय स्मारिकाओं का सम्पादन ।
पुरस्कार एवं सम्मान : विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा कई स्थानीय, प्रान्तीय एवं राष्ट्रीय सम्मान एवं प्रशस्ति-पत्र।
सम्प्रति : आर.एस.एस. महिला कॉलेज, सीतामढ़ी (बी.आर.ए. बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर)
सम्पर्क : 'विमर्श वाटिका', नागेन्द्र नगर, लेन नं-01
बेला रोड, मिठनपुरा, पो.-रमना
मुजफ्फरपुर-842002 (बिहार)।
भूमिका
डॉ. हरिनारायण ठाकुर की यह पुस्तक केवल दलित साहित्य ही नहीं, बल्कि दलित चेतना की पृष्ठभूमि की बेचैनियों और उसके प्रभावों, आन्दोलनों और रचनात्मकताओं का सविस्तार विश्लेषण भी है। विशाल आकार की इस पुस्तक को पढ़कर कोई भी 'दलित' की सम्पूर्ण अवधारणा को समुचित तरीके से समझ सकता है। जाहिर है कि यह रचनात्मक संलग्नता के बगैर सम्भव नहीं है। पुस्तक का नाम भले ही 'दलित साहित्य का समाजशास्त्र' हो, लेकिन इसमें दलित समाज का साहित्यशास्त्र भी है। और यह बतौर अध्ययन प्रस्तुत है। वास्तव में यह शोधग्रन्थ भी है और इसलिए इसमें जो खंड बनाये गये हैं, मसलन विमर्श खंड, इतिहास खंड, रचना और मूल्यांकन खंड, वे दलित चेतना की बहुआयामी विकास-कथा को दर्शाते हैं। दलित विषयक ऐसी अन्य कोई विशद पुस्तक अभी तक तो मेरी नजर से नहीं गुजरी है।
इन दिनों दलित साहित्य बहुतायत में लिखा जा रहा है और उसके बारे में सोचा, विचारा भी खूब जा रहा है, जो कि होना भी चाहिए। वास्तव में ये दलित साहित्य ही है, जिसके अध्ययन के पश्चात् किसी भी समाज का वास्तविक अध्ययन हो सकता है। यदि दलित साहित्य नहीं होता, तो यह जान पाना असम्भव होता कि हमारा सामाजिक इतिहास किन पीड़ाओं, तकलीफों, अन्यायों, शोषणों और असमानताओं का इतिहास है। वास्तव में दलित साहित्य साक्षरता और लोकतान्त्रिकता का भी खास प्रतिफल है।