भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गीता में अर्जुन को दिया हुआ यह उपदेश सम्पूर्ण मानव-जाति को कर्म-प्रधान होने का सन्देश देता है। चौरासी लाख योनियों में मनुष्य जन्म को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। सिर्फ़ उसे ही कर्म करने की स्वतन्त्रता है। मनुष्य स्वविवेक से कर्म करता है, पर कर्म के फल पर उसका कोई नियन्त्रण नहीं है, जिसे भाग्य कहा जाता है।
कर्म के प्रमुखतः दो प्रकार हैं, एक संचित कर्म, जिसके आधार पर मनुष्य ने जन्म लिया और दूसरा अर्जित कर्म, जन्म के बाद के किए हुए कर्म को कहते हैं। इन्हीं के आधार पर मनुष्य का भाग्य-निर्धारण होता है।
प्रकृति द्वारा मनुष्य के मस्तिष्क की तन्त्र-व्यवस्था इतनी सुव्यवस्थित की हुई है कि आधुनिक विज्ञान द्वारा किए जा रहे हज़ारों अनुसन्धानों से भी इसे समझा नहीं जा सका है। मनुष्य अपने सौ वर्ष पूर्व तक की घटनाओं को याद रखता है या जानता है, परन्तु आने वाले एक पल के बारे में कुछ नहीं कह सकता। यदि मनुष्य के मस्तिष्क में सौ वर्ष पूर्व घटी घटनाओं को याद रखने वाले तन्तु विद्यमान हैं, तो आने वाले एक पल या भविष्य में होने वाली घटनाओं को जानने वाले तन्तुओं का भी विकास हो सकता था, परन्तु ऐसे तन्तु सामान्य मनुष्य के मस्तिष्क में उपलब्ध नहीं हैं। नियति तय है और उससे अनभिज्ञ होना, यही मनुष्य जीवन की शक्ति है और मनुष्य को कर्म करने के लिए बाध्य करने वाली ऊर्जा है, अन्यथा मनुष्य-जीवन उदासीन, निरुत्साही, निराश एवं कर्मविहीन हो जाता।
मनुष्य स्वभाव से ही अपने भविष्य के प्रति चिन्तित और आने वाले समय को जानने के लिए उत्साहित रहता है। इसलिए मनुष्य को भविष्य जानने के लिए दिशा-निर्देश के रूप में हमारे वेदों, ग्रन्थों, पुराणों में ऋषि-मुनियों ने अनेक शास्त्रों जैसे-ज्योतिष (नक्षत्न एवं ग्रह), हस्तरेखा एवं अन्य विधियों द्वारा समय-चक्र एवं नियति को जानने वाली विधियां बताई गईं और ये सभी विधियां दिशा-निर्देश के रूप में हैं। उदाहरण के लिए ज्योतिष शब्द का आशय ही ज्योति बताने वाले शास्त्र से है, अर्थात भविष्य के अंधेरे में ज्योति प्रज्वलित कर राह बताना ज्योतिष शास्त्र का उद्देश्य है।
नियति निश्चित है और उसे बदला नहीं जा सकता एवं मनुष्य का जीवन कर्मप्रधान है। उसे सिर्फ कर्म करना है। तो वांछित फल पाने के लिए भविष्य जानने की अनेक विधियों को अपनाकर अर्थात इन विधियों के दिशा-निर्देशों के अनुसार कर्म करके ही वांछित अथवा शुभ फल प्राप्त किए जा सकते हैं।
मनुष्य अपने कार्यों को उनके फल के सन्दर्भ में जांचे तो ज्ञात होगा कि जब मनुष्य कार्य करने जाता है, तो कुछ ग्रह उसके अनुकूल होते हैं और कुछ ग्रह उसके प्रतिकूल होते हैं; या मनुष्य के यह एवं दशा अनुकूल हैं, मगर वास्तु में दोष है; या वास्तु अनुकूल है, मगर दशा अथवा समय ख़राब है; और कई बार यह भी देखने में आया है कि ग्रह-दशा उत्तम है, वास्तु उत्तम है, फिर भी कार्य में बाधा, कार्य देरी से होना या नहीं होना आदि परिस्थितियों से दुखी हैं। तो यह देखा गया है कि उसका कारण कहीं और है, जैसे-उसके निवास या कार्य-स्थल के पास कोई पवित्र अथवा शुभ वृक्ष जो गलत दिशा में है या दुषित हो गया है, इसलिए मनुष्य दुखी है और उसे अपने कार्य के अपेक्षित परिणाम नहीं मिल रहे हैं। कहने का तात्पर्य है कि जब मनुष्य कार्य करता है, तो उसे कई सारे तत्त्व प्रभावित करते हैं, अतः कार्य के अपेक्षित परिणाम प्राप्त करने के लिए सभी तत्त्वों का विश्लेषण करना आवश्यक है।
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