Mauritius, Guyana, Trinidad, Suriname, Fiji, South Africa, Australia, UK, USA, Canada, New Zealand, UAE, Nepal
पुस्तक परिचय
यह पुस्तक शोध पर आधारित सोलह लेखों का संग्रह है। इसमें तेरह देशों की हिंदी की कहानी है। कहानी में हिंदी का ऐतिहासिक पक्ष भी है, शैक्षिक पक्ष भी है, और भाषा के संरक्षण और अनुरक्षण का पक्ष भी है। लेखकों ने अपनी-अपनी रुचि और प्रवीणता के अनुसार उन पक्षों पर प्रकाश डाला है। भाषा के संरक्षण और अनुरक्षण का विषय सब लेखकों ने अपने शोधपरक लेखों में सम्मिलित किया है। लेखकों के साथ विचार-विमर्श, परिवर्तन और स्पीकरण की प्रक्रिया में बीते तीन वर्षों के परिश्रम का सुखद परिणाम यह पुस्तक है। यहां प्रस्तुत लेखों का अंतिम रूप लेखकों से अनुमत है। प्रवासी भारत में हिंदी भाषा के विभिन्न पक्षों पर पिछले पैंतीस वर्षों से शोधपरक लेखन हो रहा है। तब से शोधकर्ता निरंतर लिखते चले आ रहे हैं। यह कार्य शुरू हुआ गिरमिटिया देशों में भारत से गई हिंदी की सहचरी भोजपुरी, अवधी आदि भाषाओं के साथ। किसी ने उसके ऐतिहासिक पक्ष पर लिखा तो किसी ने सामाजिक भाषा-विज्ञान की दृष्टि से उनके सामाजिक पक्ष पर अपने शोधपत्र प्रकाशित किए। सब लेखक संसार के विभिन्न देशों में बसे प्रतिष्ठित विद्वान, शोधकार्य में लगे भाषा-चिंतक हैं। इनके लेखों के माध्यम से भाषा-विज्ञान में कुछ नई अवधारणाएं सशक्त हुई हैं। भारत से बाहर के देशों में हिंदी की पूरी कहानी सब लेखों के समुच्चयात्मक अध्ययन से ही स्पष्ट होती है।परिशिष्ट में भारत में हिंदी की स्थिति पर तीन विख्यात भाषा-चिन्तकों के विचारों का संग्रह है। हिन्दी की संवैधानिक स्थिति से बात शुरू होती है और आज के वैश्विक संदर्भ में व्यावसायिक जगत में हिंदी के बढ़ते चरणों का वर्णन और अंत मे प्रौद्योगिकी के विकासशील पर्यावरण में हिंदी के अस्तित्व का विश्लेषण है।
लेखक परिचय
डॉ. सुरेन्द्र गंभीर यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेन्सिल्वेनिया, कॉरनेल यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ़ विस्कान्सिन में अध्यापन कार्य (1973-2008)1 संप्रति सेवा-निवृत्त वरिष्ठ प्राचार्य। यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेन्सिल्वेनिया से भाषा-विज्ञान में पीएचडी। अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडियन स्टडीज भाषा-समिति के भूतपूर्व अध्यक्ष और भारत में 13 विभिन्न भाषा-कार्यक्रमों के निदेशक। पैन-इन-इंडिया स्टडी-एबरॉड कार्यक्रम के भूतपूर्व संस्थापक-निदेशक। अमेरिका में अनेक भाषा से संबंधित कार्यक्रमों के सलाहकार। अमेरिका, चैक रिपब्लिक, मॉरीशस तथा भारत में अनेक संगोष्ठियों में बीज-वक्ता। गयाना, त्रिनिदाद, सूरीनाम, मॉरीशस, भारत और अमेरिका के प्रवासी भारतीयों के बीच फ़ील्ड वर्क, शोध और लेखन। सामाजिक भाषा-विज्ञान, प्रवासी भारतीय समाज, विदेशी भाषा अधिग्रहण, व्यावसायिक भाषा, संस्कृत साहित्य, हिन्दू माइथोलॉजी, भारतीय दर्शन विषयों में विशेषज्ञता और प्रकाशन। सात पुस्तकें और सौ से अधिक शोध लेख। अनेक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों से सम्मानित। विश्व हिंदी सम्मेलन, न्यूयार्क (2007) में और वर्ष 2012 में भारत के राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित। फ़िलाडेल्फिया (अमेरिका) में सपरिवार स्थायी निवास।
पुरोवाक्
हिंदी की विश्व-यात्रा को उकेरती डॉ. सुरेन्द्र गंभीर तथा डॉ. वशिनी शर्मा द्वारा सम्पादित 'प्रवासी भारतीयों में हिंदी की कहानी' हिंदी-अध्ययन के लिए एक प्रामाणिक दस्तावेज़ है जिसमें विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में हिंदी की उपस्थिति की वास्तविकता प्रकट होती है। इस प्रकार की पुस्तक चिरप्रतीक्षित थी और उससे एक बड़े अभाव की पूर्ति हो रही है। डॉ. गंभीर संयुक्त राज्य अमेरिका में हिंदी की ध्वजा फहराने वाले प्रख्यात भाषाविद् हैं। वे आधुनिक संदर्भ में हिंदी के उपयोग की संभावना तलाशने और उसे व्यवहार की दृष्टि से अधिकाधिक समृद्ध करने का सराहनीय प्रयास वर्षों से करते आ रहे हैं।
आज वैश्वीकरण समकालीन जीवन का यथार्थ बन रहा है। इसके अंतर्गत देश-काल के अनुभव की दृष्टि से विश्व सिकुड़ता सा लग रहा है ऐसे प्रयास विशेष रूप से सार्थक हैं। एक अर्थ में आज विश्व-ग्राम की कल्पना साकार होती सी लग रही है। बदलती आर्थिक और राजनैतिक प्रक्रियाओं द्वारा वैश्वीकरण आज भाषा, कला, ज्ञान और संस्कृति के विभिन्न पक्षों को सतत प्रभावित कर रहा है। अब वैश्वीकरण द्वारा राष्ट्रों के बीच क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर न केवल राजनयिक अपितु सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में भी पारस्परिक सहयोग के नए आयाम खुल रहे हैं। ऐसे में संवाद की परिधि विस्तृत हो रही है और उसके नए तौर-तरीक़े निर्धारित किए जा रहे हैं। अब तकनीकी विकास और उसकी उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिए विभिन्न देशों के बीच परस्पर निर्भरता अनिवार्य सी हो चली है।
प्रस्तावना
भारत से लोगों का दूसरे देशों में जाकर बसना कम से कम दो हज़ार वर्षों से चला आ रहा है। लगभग आठ समुदाय अलग अलग काल में भारत से जाकर दूसरे देशों में बस गए। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में तमिल-भाषी श्रीलंका गए, जिप्सी नाम से विख्यात रोमनी लोग ईसा पूर्व चौथी शताब्दी और ग्यारहवीं शताब्दी के दौरान अफगानिस्तान की तरफ़ से टर्की होते हुए योरोप, अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अमेरिका, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया में फैल गए। भारत मूल के लोग पांचवीं शताब्दी और फिर बीसवीं शताब्दी में इंडोनेशिया गये। उन्नीसवीं शताब्दी में सिंगापुर, मलेशिया, थाईलैंड, बर्मा, हांगकांग आदि, 1834-1917 के दौरान शर्तबंद श्रमिक मॉरिशस, रियूनियन, गयाना, त्रिनिदाद, सूरिनाम, ग्वाडालूप, फ़ीजी, दक्षिण अफ्रीका आदि, उन्नीसवीं शताब्दी में पूर्वी अफ्रीका, उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में नेपाल, और बीसवीं शताब्दी में योरोप, अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया आदि देशों में भारतीयों का भारत से विदेश गमन और प्रवासन हुआ।
सभी समुदायों ने अपनी संस्कृति के कुछ अवयवों का पीढ़ी-दर-पीढ़ी संरक्षण किया है। इन संरक्षित उपकरणों में हैं धर्म, खाना और मनस्पटल पर अंकित कुछ संस्कार। परंतु भाषा का उपकरण वे हर जगह नहीं बचा पाए। भाषा कुछ ही समुदायों में बची है-श्रीलंका के तमिल भाषी प्रवासियों में, जिप्सी लोगों में, नेपाल में, और यू.ए.ई में। जहां नहीं बची वे देश हैं- गयाना, त्रिनिदाद और मॉरिशस। और जहां भाषा आज ह्रासोन्मुख है वे देश हैं- फ़ीजी और सूरिनाम।