प्रस्तावना
भारतीय वाङ्मय में पुराणों को बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। यह बात अलग है कि आज के बुद्धिवादी अनुसन्धान कर्त्ता और पुराविद् उन्हें इतिहास-सम्मत मानते हैं अथवा कोरी कल्पना पर आधारित कथा-साहित्य । परन्तु कुछ पौराणिक सन्दर्भ ऐसे हैं, जिनकी आधार शिलाएं आज भी दृष्टिगोचर होती हैं। वेदों में भी जिन्हें 'देवता' कहा गया है। वैदिक काल से लेकर, अब तक अलौकिक और अजेय शक्तियों के रूप में ऐसे कई देवताओं की पूजा-उपासना होती चली आ रही है। यथा अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और सूर्य (पंचतत्त्व)। आज का भौतिक विज्ञानी 'सूर्य' के अस्तित्त्व को स्वीकार तो करता है, परन्तु देवता के रूप में नहीं, अपितु प्रकृति के एक अंग के रूप में। फिर भी, यह व्याख्या प्रस्तुत करने के बावजूद, वह सूर्य के अस्तित्त्व, उत्पत्ति, संरचना, समाहित तत्त्व और उसकी अवस्थिति पर अकाट्य, सर्वसम्मत तथ्य प्रस्तुत नहीं कर पाया तथा जो तथ्य वह प्रस्तुत करता भी है, उसमें शब्दों का हेर-फेर भले ही हो, सारांश यही निकलता है कि सूर्य एक स्वयंभू प्राकृतिक शक्ति है- प्रकृति का अंग है। इस प्रकार सूर्य के अद्भुत आलौकिक अस्तित्त्व को सब स्वीकार करते हैं, भले ही कोई उसे देवता कहे, कोई ग्रह, कोई तारा या नक्षत्र बताये, अथवा कोई उसे अनादि काल से जल रही विभिन्न गैसों का पिण्ड (गोला) कहे। परन्तु इस बिन्दु पर सब एकमत हैं। यदि यह न होता, तो विश्व ब्रह्माण्ड को वर्तमान रूप प्राप्त न होता । रूप, गुण, शील स्वभाव, तेज, शक्ति, विद्वता और लोकहित में जो सामान्य-जन की अपेक्षा अधिक हो, उसके लिए 'देवता' शब्द का प्रयोग हम अपने वर्तमान, सामाजिक जीवन में प्रायः करते रहते हैं। राम-कृष्ण जैसे पुराण-पुरुष इसी कोटि के देवता थे। आकाशमण्डल में गतिशील नवग्रहों को भी, भले ही वे ठोस पिण्ड हों, अथवा कायाधारी मानव हों-'देवता'- कहा गया है। कारण कि देवत्त्व के तत्त्व उनमें भी पूर्णरूपेण विद्यमान हैं। 'सूर्याराधन' के महत्त्व को सभी पुराण-वेत्ता एक स्वर से स्वीकार करते हैं और हमारा विवेच्य विषय भी 'सूर्याराधन' ही है तथा इस ग्रन्थ में 'सूर्याराधना' के सभी अंगों को समाहित करने की चेष्टा की गई है।
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