य ह सत्य है कि स्वाधीनता की लड़ाई से लेकर स्वतंत्र भारत के प्रधानमंत्री पद तक के लाल बहादुर शास्त्री के जीवन की एक लंबी संघर्ष गाथा है। कोई हैरान हो सकता है कि जन्म लेने के साथ ही मेले की भीड़ में लापता होने और फिर मिल जाने से लेकर डेढ़ वर्ष की अवस्था में पितृविहीन हो जाने वाला बालक गरीबी और अभावों को ही अपना वस्त्र आभूषण बनाता भारत के प्रधानमंत्री पद तक की गरिमा को किस सादगी और निष्ठा से निभाता है कि पूरा विश्व उसे स्पृहा से देखने लगता है। भारत को शक्तिसंपन्न और खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाने का शास्त्री का सपना विश्व के कई देशों की आँखों की नींद उड़ा देता है। युद्ध थोपे जाने की स्थिति में शत्रु देश को उसकी सीमा में घुसकर पराजित कर देना और भारत के चरणों में आत्मसमर्पण कर देने को विवश कर देनेवाले शास्त्री की आँखों में बसी वैश्विक शांति स्थापना की झिलमिलाहट से चौंधियाई आँखों वाले विश्व के तमाम देश यह सोचने के लिए विवश थे कि यह छोटे कद का दुबला-पतला मानव युद्ध का देवता है या शांति का पुजारी? धोती-कुर्ता जैसे विशुद्ध भारतीय पहनावे वाला यह जनप्रिय नेता जितना बाहर से भारतीय था, उससे कहीं अधिक वह भीतर से भारतीय संस्कारों और मूल्यों को धारण किए हुए था, जिसके एक आह्वान पर पूरा देश एक समय का भोजन त्याग देता था, सैनिक शेर की तरह दुश्मन पर टूट पड़ते थे, सैनिकों के बीच जाकर शत्रु के ध्वस्त टैंकों के बीच जो खड़े होकर अपने जवानों के शौर्य और वीरता का उद्घोष पूरी दुनिया के कानों तक पहुँचाता था, अपने भारतीय वैज्ञानिकों के दम पर जो शीर्ष विश्व देशों के साथ कदमताल करता हुआ परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को अंजाम दे रहा था, ऐसे ही न जाने कितने शक्ति और समृद्धि की योजनाओं को लागू करते हुए जिसने भारत को वैश्विक क्षितिज पर पहुँचाने का अघोषित संकल्प लिया था, उस शास्त्री की विदेश की धरती पर रहस्यमय मृत्यु आज तक रहस्य बनी हुई है। यह स्वतंत्र भारत के राजनीतिक माथे पर लगा हुआ एक अफसोसनाक दाग है, जिसे शायद ही कभी पूरी तरह से मिटाया जा सके। लेकिन उस दाग के मूल कारणों को जान लेना भी इसलिए जरूरी होता है, ताकि भविष्य में इतिहास दुहराया न जा सके। नई पीढ़ियाँ उसे समझेंगी, तभी सतर्क होंगी और तभी इस प्रकार के संजालों के प्रति सावधान रहते हुए उसके समाधान की दिशा में प्रयासरत होंगी। शास्त्री का प्रधानमंत्री होना भारतीय राजनीति का एक टर्निंग पॉइंट था, जो मात्र अठारह महीनों का था, लेकिन एक मील का पत्थर तो गाड़ ही गया कि राष्ट्र को आत्मगौरव और शक्तिसंपन्न बनाने के लिए वही एक रास्ता है, जो इस टर्निंग पॉइंट का संकेतक कहता है।
कांग्रेस की भूमिका स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अद्भुत थी। बड़े-बड़े नेता और क्रांतिकारियों ने इस कांग्रेस के बैनर के साथ खड़े हुए और अपने-अपने गरम या नरम तेवरों के साथ भारत माँ को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराने का पुरजोर प्रयास किया। अंग्रेजों से आजादी लेना कांग्रेस का मिशन थी तो भारतीय जनमानस का संकल्प। दोनों ने अपने-अपने स्तर से संघर्ष किया। परंतु कालांतर में बहुत से क्रांतिकारियों को जब इसकी आवश्यकता से अधिक नरम तेवर और अहिंसा की नीति निरर्थक लगने लगी तो उन्होंने इसका साथ छोड़कर सशस्त्र क्रांति का रास्ता पकड़ लिया। भगत सिंह, खुदीराम बोस, चंद्रशेखर आजाद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, दुर्गा भाभी, बोहरा, सुशीला दीदी आदि ऐसे ही नाम थे। क्रांति में विश्वास रखते हुए भी शास्त्रीजी ने कांग्रेस की नीतियों में भी आस्था रखी। पूरा जीवन जेल यातनाएँ झेलने में बीत रहा था। नाखूनों में पिन चुभाए जाने से लेकर अनेक शारीरिक और मानसिक कष्ट उठा रहे थे, क्योंकि भारत माँ को गुलामी से मुक्त करवाना उद्देश्य था उनका।
1947 में भारत आजाद हुआ। अपरोक्ष रूप से ही सही, इस विजय का सेहरा कांग्रेस के माथे पर सजा। पहले प्रधानमंत्री के रूप में ताजपोशी जवाहरलाल नेहरू की हुई। अहिंसा की विजय इस रूप में हुई कि भारत का विभाजन हो गया। पाकिस्तान ने एक अलग सत्ता के साथ इसलामिक राष्ट्र घोषित कर लिया स्वयं को। भारत ने अपने कुछ नेताओं के प्रभाव में स्वभावतः अपनी नरमी और उदारता दिखाते हुए अपने को 'सेक्युलर' कहलाने में गौरवान्वित महसूस किया। भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान ने हिंदू और सिख स्त्री-पुरुषों, बच्चों को अनेक प्रकार की यातनाएँ देते हुए लूटपाट, छीन-झपट, बलात्कार, हत्या जैसे कृत्य करते हुए उन्हें भारत भाग आने को विवश किया। राजौरी की घाटी में शरण लिए लाखों लोगों को रातोरात कबाइली वेश में लूट लिया। साथ की स्त्रियों, बच्चियों का शीलहरण किया और शरणार्थी शिविरों में कत्लेआम मचाया। इसके ठीक उलट भारत की अहिंसावादी नीति ने उदारता दिखाते हुए यहाँ के मुसलमानों को छूट दी कि यह उनकी मरजी पर है कि वे पाकिस्तान चले जाएँ या यहीं रहें। 21वीं सदी आते-आते यह स्थिति हो गई कि पाकिस्तान में गिनती के एक दो प्रतिशत हिंदू रह गए, जबकि भारत में कुल आबादी की लगभग आधी जनसंख्या मुसलमानों की हो गई।
खैर, चर्चा कहाँ से कहाँ मुड़ गई। तो आजादी के कुछ वर्षों पहले से ही कांग्रेस की नीतियों का यह मूर्खतापूर्ण लचीलापन सभी को समझ में आने लगा था, जो आजादी के बाद बिल्कुल मुखर हो उठा था। विदेशी ताकतें भी नहीं चाहती थीं कि भारत आजाद होकर भी भारत के हाथों में रहे। उन्हें भारत की राजनीति को अपनी शर्तों और उद्देश्यों के अनुसार संचालित करना था। राजनीतिक रूप से भारत भले ही सत्ता सँभाले, पर उसकी निर्भरता विदेशों पर बनी रहे। इस प्रकार मुक्त करते हुए भी सत्ता की बागडोर उन विश्व-ताकतों के हाथ में रहेगी, यह उनका सपना था। इसके लिए पटेल या सुभाष चंद्र बोस जैसे जमीन से जुड़े नेताओं की आवश्यकता नहीं थी। किसी ऐसे नेता की आवश्यकता थी, जिसे सत्ता सौंपकर अपना हित साधा जा सके। तो नेहरू पहली पसंद बन गए।
नेताजी को अगस्त 1945 में ही भूमिगत होना पड़ा। कहा जाता है कि अपने निधन की झूठी खबर प्रसारित करवाकर वे मित्र राष्ट्रों के सहयोग की कामना से जापान से सोवियत संघ चले गए। उसके पूर्व अक्तूबर 1943 में ही उन्होंने स्वतंत्रता का उद्घोष करते हुए अपना राष्ट्रीय ध्वज फहरा दिया था और भारत की अंतरिम सरकार की घोषणा भी कर दी थी। इस अंतरिम सरकार को जापान, जर्मनी समेत कई राष्ट्रों ने समर्थन दिया। एक तरह से कहा जाए तो भारत 1943 में ही आजाद हो गया था। बस अंग्रेजों द्वारा मान्यता उसे 1947 में मिली। ब्रिटेन के खिलाफ सशस्त्र युद्ध छेड़ने के कारण नेताजी सुभाष चंद्र बोस अंग्रेजों की निगाह में शुरू से ही चुभरहे थे। पकड़े जाने पर उनसे युद्ध अपराधी जैसा व्यवहार किया जाता, इसलिए तात्कालिक आवश्यकता यही थी कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस भूमिगत हो जाएँ और फिर भारत के पूरी तरह से आजाद हो जाने के बाद भारत आ जाएँगे।
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