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तत्त्वार्थसार- Tattvarthasar: Acharya Amritchandra Suri's Hindi Commentary

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Specifications
Publisher: Bharatiya Jnanpith, New Delhi
Author Muni Amitsagar
Language: Sanskrit Text with Hindi Translation
Pages: 350
Cover: HARDCOVER
10x7.5 inch
Weight 830 gm
Edition: 2012
ISBN: 9788126340385
HBX520
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Book Description

प्रस्तावना

आज तक हम सबने क्या-क्या नहीं सुना है। राजा रानियों की कहानियाँ सुनी हैं, सेठ सेठानियों की कहानियाँ सुनी हैं, पशु-पक्षियों की कहानियाँ सुनी हैं और भी न जाने कितनी, किन-किन की कहानियों को सुना है। तभी तो आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने अपने आध्यात्मिक ग्रन्थ 'समयसार' में कहा है-

सुदपरिचिदाणुभूया सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा।

एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ।। 4।।

इस समस्त जीवलोक को कामभोग विषयक बन्ध की कथा, एकत्व के विरुद्ध होने से आत्मा का अत्यन्त अहित करनेवाली है, ऐसा जानते हुए भी इस जीव ने उस काम (स्पर्शन-रसना सम्बन्धी) तथा भोग (घ्राण-चक्षु कर्ण-सम्बन्धी) बन्ध की कुकथा को एवं चारों संज्ञाओं से संस्कारित चारों विकथाओं को अनादिकाल से एक बार नहीं, अनन्त बार बड़ी रुचि एवं लगन से सुना- बद्धान किया। इन्हीं विषयों की जिज्ञासा होने से इनका अनन्त बार परिचय-ज्ञान लिया। जैसा ज्ञान वैसा ही चारित्र के द्वारा अनुभव करने को ये जीव अनन्त बार पुरुषार्थ करने में लगे रहते हैं।

इसी कारण से समस्त संसारी प्राणी संसाररूपी चक्र के मध्य में स्थित द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पंच परावर्तन रूप अनन्त संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं।

मोहरूपी महाबलवान पिशाच, जो इस समस्त लोक को अपने एक छत्र राज्य से अपने वश करके बैल की भाँति जोतकर कर्मरूपी भार को जीव के द्वारा जबर्दस्ती वहन करवाता है।

अत्यन्त वेगवान् तृष्णारूपी रोग की दाह से सन्तप्त होने पर जिसके अन्तरंग में क्षोभ और पीड़ा है ऐसा मृग, मृगमरीचिका के वशीभूत होकर मरुस्थल में भटकता है, उसी प्रकार यह जीव, मृगतृष्णा के समान श्रान्त-सन्तप्त होकर पंचेन्द्रिय विषयों की ओर तीव्रगति से दौड़ रहा है।

यदि कथंचित् कोई जीव, किसी कारण से संसार के विषयभोगों की कुकथा से चारुदत्त के समान अजान-उदासीन भी होता है तो अन्य दूसरे विषयासक्त जीव, उसे पंचेन्द्रिय विषयों की शिक्षा देकर अपना आचार्यत्व प्रकट करते हैं, एक-दूसरे को सिखाते हैं, समझाते हैं, प्रेरणा देते हैं, इसलिए काम-भोग सम्बन्धी बन्ध की कथा सभी भोगाभिलाषियों के लिए अत्यन्त सुलभ है।

आज के भौतिकता के समय में भी प्रत्यक्ष अनुभव में आ रहा है कि काम-विकारों को बढ़ाने वाले भौतिक सुख-साधन घर-घर में कितने सुलभ हैं। सुबह से अखबार, टी.वी., नेट, मैग्जीन आदि से जीवनचर्या प्रारम्भहोकर रात्रि में विश्राम तक इन्हीं का अवलम्बन लिए हुए है।

परन्तु अपने ही निर्मल भेद-विज्ञानरूपी ज्योति से स्पष्ट दिखाई देनेवाली एकत्व-विभक्त आत्मा, यद्यपि सदा अन्तरंग में प्रकट रूप से प्रकाशमान है तो भी वह कषायचक्र के साथ एकरूप किए जाने से अपने सच्चे स्वरूप को पहचानता नहीं है और जो आत्मा के सच्चे स्वरूप को जानते हैं, उनकी संगति-सेवा नहीं करते। यह तो लोकप्रसिद्ध है कि डॉक्टर, मास्टर, वकील, इंजीनियर, व्यापारी, जौहरी आदि बनना हो तो यथाक्रम से योग्य पदवालों के नीचे रहकर संगति अभ्यास करना होता है।

उसी प्रकार यदि अध्यात्म को समझना है तो, जिन्होंने अध्यात्म जिया है, पिया है, जीवन में उतारा है, उनकी संगति करने से उस आत्मतत्त्व के गूढ़तम रहस्य समझ में आ सकते हैं। अन्यथा उस एकत्व-विभक्त आत्मा की कथा को न हमने कभी सुना श्रद्धान किया, न कभी परिचय-ज्ञान किया, न कभी अनुभवरूप आचरण किया, क्योंकि जब एकत्व-विभक्त आत्मा की सुकथा सुनाने-बताने वाले सुलभ होते हैं तब उनसे जानने-सुनने वाले दुर्लभ होते हैं और जब जानने सुननेवाले सुलभ होते हैं तब बताने सुनानेवाले दुर्लभ होते हैं। अतः आत्मा की एकत्व-विभक्त सुकथा अत्यन्त दुर्लभ है।'

इस आत्मा का अस्तित्व कब से है? कैसा है? कहाँ है? कब तक है? इसके अस्तित्व का विकासक्रम क्या है? इत्यादिक प्रश्न मन में जन्म अवश्य लेते हैं।

कौन थे? क्या हो गये? और क्या होंगे अभी ?

आओ यहाँ सब बैठकर इस बात को सोचें सभी।

इस जीव का अनादि निवासस्थान निगोद है। निगोद के दो भेद हैं- नित्यनिगोद और इतरनिगोद। जो जीव, नित्यनिगोद से निकलकर संसार की त्रसादि पर्यायों को पंच-परावर्तन रूप काल से व्यतीत करके पुनः निगोद में जाता है उसे इतरनिगोद कहते हैं।

नित्यनिगोद सातवें नरक के नीचे कलकल नामक पृथ्वी में है, जहाँ उनका निवासस्थान है। अनन्त स्कन्धों के समूह में से 'एक स्कन्ध' में असंख्यात लोकप्रमाण 'अण्डर' होते हैं। उनमें से 'एक अण्डर' में असंख्यात लोकप्रमाण 'आवास' होते हैं। उनमें से 'एक आवास' में असंख्यात लोकप्रमाण 'पुलवि' होती हैं। उनमें से 'एक पुलवि' में असंख्यात लोकप्रमाण 'निगोद शरीर' होते है। उनमें से 'एक निगोद शरीर' में अनन्तानन्त निगोद जीवों का अवस्थान पाया जाता है। वहाँ पर एक निगोद शरीर के अनन्त जीवों का सामूहिक रूप से एक श्वास में अठारह बार जन्म-मरण होता है।

इन्हों नित्य निगोदिया जीवों में से छह महीने, आठ समय में छह सौ आठ जीव निकलकर संसार को व्यवहार राशि में आते हैं एवं इतने ही समय में छह सौ आठ जीव संसार की व्यवहार राशि से निकलकर मोक्ष चले जाते हैं, जिससे संसारी जीवों की व्यवहार राशि बराबर बनी रहती है।

यहाँ एक प्रश्न उठता है कि यह जीव, नित्य निगोद से निकलकर व्यवहार राशि में कैसे आता है? इस प्रश्न का एक उत्तर, हमेशा विद्वानों द्वारा दिया जाता रहा है। जैसे कोई एक भड़भूजा (चना फोड़ने वाला) जब भाड़ पूँजता है, तब कोई विरला चने का दाना भाड़ से उचटकर भाड़ के बाहर आ जाता है, वैसे ही नित्यनिगोद से जीव व्यवहार राशि में निकलकर आ जाता है।

इस दृष्टान्त में भाड़ से उचटकर बाहर निकलनेवाले चने की प्रवृत्ति का विश्लेषण करना अत्यन्त आवश्यक है कि यह चने का दाना भाड़ से उचटकर बाहर कैसे आया? कौन-सा निमित्त है? कौन-सी पात्रता उस चने को भाड़ से बाहर निकालने में सहायक होती है?

जब चनों को भाड़ में पूँजते हैं तब उसके पहले उन चनों को पानी में भिगोकर फुलाते हैं, पुनः भाड़ में भूजते हैं। भाड़ में भूजते समय भट्टी की गर्मी से गीले चनों के दानों में वाष्प का निर्माण होता है। जिस चने के दाने में एक निश्चित अनुपात में वाध्य बन जाती है वह वाष्प विस्फोट करती है। यदि वह चने का दाना भाड़ में नीचे की तरफ हो तो वहीं फूटकर नीचे ही रह जाता है, लेकिन भाड़ की ऊपर की सतह पर हो तब विस्फोट के कारण भाड़ से उचटकर बाहर निकल आता है।

ठीक इसी प्रकार से नित्यनिगोदिया जीव, निगोद से निकलकर व्यवहार राशि में आते हैं। इस प्रक्रिया में नित्यनिगोद से निकलनेवाले जीव का कारण 'जघन्य कापोत लेश्या के आत मध्यम अंश के परिणाम कहे हैं। क्योंकि नित्य निगोदिया जीवों की जघन्य कापोत लेश्या होती है और उसमें भी उस लेश्या के असंख्यात परिणाम होते हैं।

"कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्ति लेश्या"। जैसे-गर्मी और पानी के संयोग से वाष्प बनती है वैसे ही कषाय से प्रभावित होकर योगों में जो परिवर्तन आता है उसे लेश्या कहा जाता है।

जिस प्रकार से भाड़ के चने को भाड़ से बाहर उचटाने में वाष्प कारण है उसी प्रकार जघन्य कापोत लेश्या के महत्त्वपूर्ण आठ मध्यम अंश इस जीव को नित्यनिगोद से बाहर निकालने तथा व्यवहार राशि में लाने के लिए कारण हैं। अतः इस जीव का नित्यनिगोद से व्यवहार राशि में आना अत्यन्त कठिन है।

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