भारतीय जनमानस के हृदय में राम और रामचरितमानस दोनों अपनी पूरी गरिमा, महिमा, प्रेम और सम्मान के साथ बसे हुए हैं और उनकी 'अमित गुणकारी रामकथा' उनके श्वास-श्वास मे। रामकथा को हिंदू समाज में अत्यंत सम्मान एवं आदर प्राप्त है। रामचरितमानस हिंदुओं का ग्रंथ ही नहीं, युग विशेष का काव्य भी नहीं, वरन् विश्वव्यापी सदैव सामयिक बनी रहने वाली कालजयी रचना है। रामचरितमानस के रूप में तुलसीदास ने भारतीय संस्कृति को वह आधार दिया जो विराट और बहुआयामी था। राम का पूरा चरित्र दिव्य आदर्श था। विष्णु के अवतारों में वह मानवीय थे। वह पुरुषों में पुरुषोत्तम हैं। भारतीयता के सबसे बड़े मानदंड हैं। वह भारत के लोकनायक हैं। राम धर्म का विग्रह हैं। गोस्वामी तुलसीदास के आते-आते राम के महामानवत्व का पूर्ण ईश्वरीकरण हो गया। उन्होंने उन्हें विष्णु का लीलावतार कहा और 'हरिहर शंभु नचावन हारे' कहा।
तुलसीदास मध्ययुगीन विचार-परंपरा के प्रतिनिधि कवि हैं। वह हिंदी काव्य की अन्यतम विभूति हैं। राम के अनन्य भक्त हैं। उन्हें जब हम उनके वैचारिक धरातल पर देखते हैं तो पाते हैं कि आदर्शवाद और लोकसंग्रह की भावना उनके काव्य की केन्द्रवर्ती भावनाएँ हैं। वह आस्था के कवि हैं। आस्तिकता उनकी भावनिधि है। सांस्कृतिक चेतना के धरातल पर तुलसीदास भारतीय संस्कृति के श्लाका पुरुष के रूप में हिंदी साहित्य में समादृत हुए हैं। भक्ति-भावना, अध्यात्म-दर्शन, सांस्कृतिक चेतना काव्यादर्श एवं पात्र-संकल्पना के अन्र्तगत चौपाइयों में गुंथे उनके विभिन्न सूत्रों की पड़ताल करते हुए अनेक बिन्दु उजागर होते हैं। प्रथम खंड के सात अध्यायों में इन सबका विवेचन-विश्लेषण किया है। इसके अतिरिक्त रामचरितमानस में प्रकृति-चित्रण और काव्य में रस संबंधी तुलसीदास की मान्यताओं पर विचार किया है।
भारतीय सांस्कृतिक चेतना के श्लाका पुरुष के रूप में तुलसीदास हिंदी साहित्य के ज्योति स्तंभ के रूप में उभरे हैं। उनका सम्पूर्ण काव्य संस्कृति-प्रेम का प्रमाण है। उनके काव्य का आधार भारतीय संस्कृति है, किन्तु समकालीन वातावरण के प्रभाव से वे अलग नहीं हैं। वह समाज-प्रतिबद्ध कवि हैं। समाज के प्रति रचनात्मक प्रतिबद्धता को उन्होंने अपना पहला धर्म मानते हुए अपने समाज की रीतियों-कुरीतियों को उन्होंने रेखांकित किया है। वह भारतीय अस्मिता के कवि हैं। भारतीय संस्कृति के संपूर्ण अंगों में उनकी प्रगाढ़ आस्था है। उनके पास श्रद्धा-समन्वित संस्कारी भक्त हृदय था। भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान के संदेशवाहक के रूप में उनकी गणना की जाती है। तुलसीदास विश्वबंधुत्व की भावना के संपोषक हैं। उनकी 'सीय राममय सब जग जानी' अथवा 'निज प्रभुमय देखहिं सकल जग केहिं सन करत विरोध' जैसी उक्तियों में सार्वभौमिक चेतना के स्वर की गूंज स्पष्ट सुनाई देती है।
तुलसीदास आस्तिकतावादी वैष्णव भक्त हैं। रामोपासना के प्रति आस्थावान हैं। वह राम में रमे हैं। उन्होंने राम के चरित को ही काव्य माना है। उन्होंने अपनी रचनाओं में 'मंगलाचरण' के रूप में राम की स्तुति की है जो उनकी राम-भक्ति भावना की परिचायक है। भक्ति की समस्त सामान्य विशेषताएँ तुलसी के काव्य में विद्यमान है। भक्ति के साधन के रूप में उन्होंने भागवत् की सर्वाधिक लोकप्रिय 'नवधा' भक्ति के अंगों को साधन के रूप में स्वीकार किया है। उनकी भक्ति में वैष्णव भक्ति की सामान्य विशेषताएँ - अनन्यता, इष्टदेव के महत्त्व का गुणगान, नाम-स्मरण की महिमा, सर्वस्व-समर्पण का भाव, शरणागति की महत्ता, गुरु-महिमा आदि विद्यमान हैं।
तुलसीदास के अध्यात्म और दर्शन का विश्लेषण यह सिद्ध करता है कि वे मूलतः कवि हैं दार्शनिक नहीं। उन्होंने अपनी आध्यात्मिक अनुभूति को काव्य के माध्यम से सहज, सुन्दर और सरस अभिव्यक्ति दी है। तुलसी दर्शन के क्षेत्र में प्रमुख रूप से रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैतवाद से प्रभावित हैं। उनकी वैष्णव भावना रामानंदी श्री सम्प्रदाय के सिद्धांतों से संपोषित हुई थी किंतु वह सारग्राही कवि थे। विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों के ग्राह्य सिद्धांतों को अपनाते हुए उन्होंने ब्रह्म, जीव, जगत्, माया, मोक्ष, आदि की अद्भुत दार्शनिक व्याख्या की है। धार्मिक संकीर्णता से मुक्त उनका दर्शन समन्यवादी दर्शन कहा जा सकता है।
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