लेखक होना एक बेचैन और अशांत मनुष्य होना है। एक नामालूम बेचैनी, कोई अज्ञात-सी तड़प, एक बदहवास-सी छटपटाहट हमेशा साथ चलती है। क्या यह प्रेम की तड़प है या जीवन से मिले अनगिनत दुःखों की ? दूसरों की सुविधा या अपने मन की तसल्ली के लिए कोई इसे प्रेम में मिली पीड़ा या उदासी का नाम दे भी देता है क्योंकि उदासी को भी एक चेहरे, एक नाम की दरकार होती है। वस्तुतः यह लेखन से मिली यंत्रणा है जो एक लेखक के लिए वरदान भी है और अभिशाप भी। रचने की बेचैनी उसे कहीं भी, कभी भी चैन नहीं लेने देती, जब वह रच रहा होता है तब भी और जब राइटर्स ब्लॉक से गुज़र रहा होता है तब भी। उसके अवचेतन में कोई रचना, कुछ शब्द हमेशा ही साथ चलते रहते हैं। उनसे मुक्ति सम्भव नहीं है। इस लेखकीय यंत्रणा, इस तड़प को सभी लेखक अपनी तरह से व्यक्त करते रहे हैं। सिल्विया प्लाथ कहती हैं, "मैं केवल इसलिए लिखती हूँ क्योंकि मेरे भीतर एक आवाज़ है जो शांत नहीं होगी।"
गौरव की गद्य की यह किताब 'देर रात तक' के पन्नों पर हर कहीं वह लेखकीय बेचैनी फैली है, चाहे वह दिल्ली की सड़कों पर घूम रहे हों, पार्क की बेंच पर बैठे हों, कॉफ़ी हॉउस में हों या चाय की चुस्कियों के बीच प्रेयसी को अपनी कविताएँ सुना रहे हों। एक अव्यक्त बेचैनी और एक अनकही उदासी शब्दों के बीच से झाँकती नज़र आ ही जाती है। एक ऐसी मीठी-सी तड़प जो एक साथ पाठकों को उदास भी करेगी और पढ़ने का सुख भी देगी। गद्य के कुछ सुंदर अंशों से गुज़रने के उल्लास से पूर्ण करेगी तो कुछ खो देने के एहसास से रिक्त भी। ठीक जीवन की तरह !
'देर रात तक' के इन गद्य के टुकड़ों के बारे में गौरव कहते हैं कि ये कविता और कहानी के मध्य की कोई चीज़ है। मैं इन्हें जीवन के नाम लिखे प्रेम के पोस्टकार्ड कहूँगी और जहाँ प्रेम होगा वहाँ उदासी, विरह, संगीत, कला, कविता सबके शेड्स बिखरे ही होंगे। गौरव युवाओं के बीच प्रेम कवि के रूप में सराहे जाते हैं लेकिन जहाँ प्रेम है फिर वहाँ से जीवन का कौन-सा रंग छूटा है! यही उनके गद्य को पढ़ते हुए भी कहा जा सकता है। जहाँ प्रेम सिर्फ़ किसी प्रेयसी के लिए ही नहीं है, इक शहर से है, चाय से है, अपने कवियों-लेखकों से है, सड़कों पर गुज़रते हरे-पीले ऑटो से है, फ़िल्मों से है, संगीत से है और कविताओं से तो है ही! जिस तरह 'दिल्ली कहीं से भी लौटा जा सकता है', इस गद्य तक भी कहीं से पहुँचा जा सकता है, कहीं भी छोड़कर फिर कहीं से लौटा जा सकता है। पढ़ने का सुख यथावत रहेगा।
हम अक्सर एक विशेषण सुनते हैं, कवि का गद्य। क्या कवि का गद्य कुछ विशेष है जो बाक़ी लेखकों में नहीं पाया जाता है। दरअसल इसे कवियों के लिए किसी कसौटी की तरह प्रयोग किया जाता है कि कविता की दुनिया में विचरने वाला यह प्राणी गद्य के संसार में कुछ नया गढ़ पाएगा भी या नहीं! उसमें गद्य की सख़्त ज़मीन पर चलने का सलीका भी है या नहीं! रसूल हमज़ातोव 'मेरा दाग़िस्तान' में कहते हैं, "कितनी ही बार मैंने अपने काव्य-गगन के नीचे गद्य के समतल मैदान पर यह ढूँढ़ते हुए नज़र डाली कि कहाँ बैठकर आराम करूँ"
गौरव का यह गद्य दरअसल कवि का ही गद्य है जहाँ अलग अलग अंशों में जीवन के नाम लिखी गई एक लंबी प्रेम कविता है, उसकी दी गई रिक्तियाँ और बेचैनियाँ हैं, एक अंतहीन प्रतीक्षा है और सबसे ज़रूरी बात-भाषा का नवाचार है। यहाँ गद्य का अविरल प्रवाह है और शब्दों का संयत, अनुशासित चयन भी जो कभी किस्सागोई की शक्ल में तो कभी किसी कविता के सौंदर्य में ढलकर आता है। एक ऐसा गद्य जिसे मालूम है कि पाठकों को कैसे बांध लेना है और कब अपने साथ बहा ले जाना है, कब उन्हें अपने साथ उदास करना है लेकिन एक आस की टिमटिम लौ भी जलाए रखनी है।
जीवन कई अलग-अलग टुकड़ों से जुड़कर बना है। यहाँ सीधा-सरल कुछ भी नहीं है जैसे किसी यात्रा को पूरा करने से पहले हम कई जगह रुककर सुस्ताते चलते हैं। ठीक उसी तरह जीवन यात्रा में भी कई ठहराव कई रूप में मौजूद है। यहाँ लिखा सबकुछ इस जीवन की तरह है जिसे कई टुकड़ों में समेटने की कोशिश की गई है। यहाँ प्रेम की हताशा भी दर्ज है तो अंधकार से बाहर आने की उम्मीद भी। यहाँ इंतज़ार चौखट पर खड़ा है तो किसी को इंतज़ार छोड़ देने की सलाह भी।
जब-जब जहाँ जैसा कुछ मिला जीवन में, ठीक अपने लिखे में भी उसे समेटा। जब इसे लिख रहा था तो नहीं पता था कि इतना कुछ लिखा जाएगा कि यह किसी रोज़ किताब की शक्ल ले लेगा। इसे किताब के रूप में इकट्ठा करने का एक कारण यह भी है कि जगह-जगह बिखरे दुःखों को एक जगह समेटा जा सके। जब लौटना हो तो अपने अतीत से एक जगह सामना हो। यहाँ लिखे में मैं कई रूप में मौजूद भी हूँ और नहीं भी। इसलिए पाठक जब इसे पढ़ेंगे तो पूरी संभावना है कि वह मुझे भूल जाएँ और यह मैं चाहता भी हूँ। उम्मीद है इस किताब के साथ आपकी अपनी यात्रा सुखद होगी।
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