| Specifications |
| Publisher: Haryana Urdu Akademi, Panchkula | |
| Author Bashir Badr | |
| Language: Hindi | |
| Pages: 96 | |
| Cover: PAPERBACK | |
| 8.5x5.5 inch | |
| Weight 156 gm | |
| Edition: 2020 | |
| HBG979 |
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उर्दू का महान शायर बशीर बद्र इन दिनों अस्वस्थ चल रहा है। मेरे जेहन में वे पुराने दिन उदास बदलों की तरह जिंदगी की उमस से जूझने लगते हैं, जब एक बेहद चहेते व प्यारे अजीज दोस्त के रूप में वह मेरे पुश्तैनी शहर अबोहर आए थे। हम दो दिन तक उस सरहदी शहर में एक नहर के किनारे घूमते रहे थे। अपनी जिंदगी के ढेरों राज़ उन दो दिनों में उसने उंडेले थे। वे 48 घंटे ऐसे बीते जैसे दो-चार पल का सिलसिला हो। मैं, मेरे प्रिय दोस्त एवं उर्दू अदीब मोहनलाल, वहां के बोहिमियन्त क्लव के सूत्रधार प्रो. सत्य प्रकाश, युवा पत्रकार साथी राजसदोष और साथ में बशीर बद्र। दरअसल उन्हें 48 घंटों की एक शाम हम लोगों ने तय किया कि बशीर के क़लाम से हिंदी में उर्दू शायरी को जज्च करने वाली नई पीढ़ी को रूबरू कराया जाए। मोहन लाल मूल रूप से उर्दू व पंजाबी के कहानीकार एवं उपन्यासकार थे। उन्हीं के मशविरे व पहलकदमी से शब्दलोक प्रकाशन का एक 'बैनर' बुना गया। उस बैनर तले उर्दू शायरी के दो 'मजमूओं' (संकलनों) के हिंदी में प्रकाशन की योजना बनी थी। बशीर बद्र ने अपने मजमूए का नाम 'तुम्हारे लिए' तय किया, जबकि दूसरे शायर प्रो. आजाद गुलाटी ने 'नई ग़ज़लें' की पांडुलिपि हम लोगों की झोली में डाल दी।
ये किस्सा लगभग 45 बरस पुराना है। उन दिनों 1100 प्रतियां छापना एक जोखिम भरा प्रयास था। मगर सभी प्रतियां छह महीने में खप गईं। उन्हें खरीदने वाले कमोबेश सभी युवा चेहरे थे। तब मूल्य भी 20 रुपए था और कॉलेजों के पुस्तकालयों के लिए 15 रुपए में। फिर भी पहले संस्करण से जो पैसे बचे, भाई मोहन लाल ने उन्हीं दिनों मनी आर्डर (अब पता नहीं प्रचलन में है भी या नहीं) के जरिए भिजवा दिए। मगर सार्थक सोच वाले उदारमना बशीर बद्र ने उसमें 11 रुपए रखे, शेष लौटा दिए। साथ में शुक्रिया अदा किया कि इस कृति के बहाने बड़ी संख्या में हिंदी के पाठक व जवां पीढ़ी उनके प्रशंसकों में शामिल हुए हैं। उनका आग्रह था कि अगला संस्करण शीघ्र छपे।
उन्हों दिनों पत्रकार व अदीब निरुपमा दत्त ने इंडियन एक्सप्रेस में इस कृति पर एक समीक्षात्मक लेख लिखा था, जिसका जिक्र यहां सार्थक होगा। निरुपमा ने लिखा था, 'जैसे ही आधुनिक उर्दू ग़ज़ल की बात चलती है तो एकदम जेहन में बशीर बद्र का ख्याल आता है। बशीर बद्र एक ऐसे शायर हैं जिन्होंने गजल की नफासत और नज़ाकत को समझते हुए नए-नए प्रयोग किए हैं। वे इस विधा को बदलते हुए युग के साथ जोड़ने में बखूबी सफल रहे हैं। अपनी लचीली आवाज में जब वह मंच पर 'शेअर' पेश करते हैं तो हर बार मुशायरा लूट ले जाते हैं। इधर, नए ग़ज़ल-गायकों ने भी बशीर बद्र का कलम खूब गाया है। इनकी जदीद शायरी अपने साथ एक नया मुहावरा, नई ताजगी और एक नया लहजा लेकर आई है। मुझे यकीं है कि बशीर उर्दू अदब व खास तौर ग़ज़ल के क्षेत्र में काफ़ी आगे तक जाएंगे।
मुझे याद है अम्बाला व गुरुग्राम के वे मुशायरे जिनमें ज्यादातर शायर यही आग्रह करते थे कि उन्हें बशीर से पहले पढ़ा दिया जाए क्योंकि एक बार बशीर शुरू हुए तो फिर श्रोता उन्हीं के नाम को आगे बढ़ाते रहने की जिद्द करेंगे।
इसी वर्ष 17 फ़रवरी को मध्यप्रदेश के राज्यपाल लाल जी टंडन जो कि बशीर साहब के प्रशंसक भी रहे थे, उनके 85 वें जन्म दिन पर उनके आवास पर गए और उन्हें एक भव्य गुलदस्ता व शॉल आदि उपहार सौंपे। बशीर साहब की बेग़म राहत बद्र ने अर्द्धचेतनावस्था में बिस्तर में ही बशीर साहब को ऊंची आवाज़ में बताया, 'लखनऊ से लाल जी टंडन आए हैं आपको मुबारिकबाद देने, तो, कांपती आवाज़ में बशीर इतना ही कह पाए 'अगर वह हमारे पास आए हैं तो हमारे ही हैं।'
बेगम राहत बद्र ने उनके कुछ पुराने शेअर दोहराकर उन्हें फिर से होश में लाने की कोशिश की। वह मुस्करा दिए हर शेअर पर।
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