महात्मा गाँधीजी के प्रिय भजन "वैष्णव जन तो तेने रे कहिए" के रचयिता नरसिंह मेहता गुजरात के भक्त कवि एवं आदि कवि के रूप में सुख्यात हैं।
उनका जन्म सन् 1414 में एवं निधन 1480 में माना जाता है। वडनगरा नागर ब्राह्मण परिवार के पिता कृष्णदास एवं माता दया कुंवर की धर जूनागढ़ (सौराष्ट्र) समीपवर्ती तलाजा में हुआ था। बचपन में ही माता-पिता का अवसान होने पर बड़े भाई बंसीधर और चाचा पर्वत मेहता की छत्रछाया में वे बड़े हुए। माणेक कुंवर नाम की सन्नारी के साथ उनका विवाह हुआ और पुत्री कुंवरबाई एवं पुत्र शामल के पिता बनने के बाद भी नरसिंह आर्थिक जिम्मेवारियों का परिपालन करने के बजाय साधु-संतों के साथ भजन-कीर्तन में डूबे रहे। इससे नाराज होकर भाभी के द्वारा ताना मारे जाने पर उन्होंने गृहत्याग किया एवं निर्जन जंगल में गोपनाथ शिवालय में उन्होंने तप किया। शिव ने उनको रासलीला के दर्शन कराए। तबसे नरसिंह मेहता कृष्ण भक्ति में लीन हो गए।
पुत्री कुंवरबाई का विवाह ऊना (सौराष्ट्र) में हुआ और चार साल के बाद 'मामेरू' भरने का (भात चढ़ाने का) प्रसंग आया। भक्त कवि नरसिंह की जेब खाली थी। कहा जाता है कि भगवान उनकी मदद के लिए हाज़िर हुए और सारी रस्में अदा की। पुत्र शामल के विवाह के बाद पत्नी माणेक एवं पुत्र शामल का देहावसान हुआ। पुत्री का भी निधन हो गया।
भक्त नरसिंह का मन सांसारिक जीवन से उठ गया। उनको सांसारिक सुख मिथ्या लगने लगा एवं कृष्ण भक्ति में ही जीवन की सार्थकता की अनुभूति हुई।
नरसिंह मेहता पर कृष्ण कृपा एवं करुणा के अनेक प्रसंग प्रचलित है। 'कुंवरबाई का मामेरा', पिता का श्राद्ध, तीर्थयात्रियों की हुण्डी भगवान के द्वारा स्वीकार करने का प्रसंग, ब्राह्मणों की शिकायत पर राजा मांडलिक शासक द्वारा यह भगीरथ कार्य चार दिनों में सम्पन्न करना मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी। अध्यक्ष श्री भाग्येश जहा एवं महामात्र श्री मनोजभाई का प्रोत्साहन एवं सहयोग मेरा प्रेरणास्रोत रहा। एस.जी.वी.पी. के अधिष्ठाता प.पू. माधवप्रियदास स्वामी, पू. बालकृष्ण स्वामी, शैक्षिक सचिव प्रि. श्री जयदेवभाई सोनगरा तथा निदेशक हेमलभाई, मेरे स्टाफ के श्री महेशभाई शाह, व्योमेश पंड्या, प्रवीणाबहन पटेल का अविस्मरणीय सहयोग रहा।
हिन्दी साहित्य परिषद के संयुक्त मंत्री श्री संतोष सुराणा का प्रकाशन सम्बन्धी अनेक समस्याओं को सुलझाने में उष्मापूर्ण सहयोग रहा। हिन्दी शब्दों को गहेराई से देखना और उन्हें स्वच्छ आकार देने की क्षमता मैंने देखी है। उनके विशेष योगदान से "वैष्णवजन नरसिंह मेहता" ग्रंथ सुंदर आकार में प्रकाशित हो सका।
सबके प्रति भावसभर आभार और हाँ, एक महत्त्व की बात, कम समय में अनेक अनुवादकों के द्वारा यह अनुवाद कार्य हुआ है। हिन्दी भाषी अनुवादकों के लिए नरसिंह मेहता की शब्दावली का समुचित अर्थ समझकर इसका अनुवाद में प्रयोग करना लोहे के चने चबाने के समान था। अतः कहीं कहीं क्षतिया रहने की संभावना है। एतदर्थ मैं सुधी पाठकों का क्षमाप्रार्थी हूँ। परितोष इस बात का है कि आपका, हमारा, माँ गुर्जरी एवं गाँधीप्रिय नरसिंह मेहता आप की दुआ और शुभकामना से भारत का शब्दयात्री बन रहा है। हमने अपना काम अपनी सीमा में रह कर सम्पन्न किया। इस भावना के साथ कि-
"यह तो वस्तु तुम्हारी ही है, ठुकरा दो या प्यार करो...।"
(Hindi translation of works and verses)
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