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वक्रोक्तिजीवितम्- Vakroktijivitam: Acharya Kuntaka (Tritiya Unmesh Vistrit Bhumika Evam Hindi Vyakhya Sahit)

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Specifications
Publisher: Shivalik Prakashan
Author Ved Prakash Dindoriya
Language: Sanskrit Text with Hindi Translation
Pages: 284
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 480 gm
Edition: 2024
ISBN: 9788196100575
HBW661
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Book Description

सम्पादकीय

संस्कृत काव्यशास्त्र में प्रचलित छः सिद्धान्तों में वक्रोक्ति सिद्धान्त अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आचार्य भरत से लेकर पण्डितराज जगन्नाथ तक की काव्यशास्त्रीय परम्परा में वक्रोक्ति किसी न किसी रूप में अवश्य विद्यमान है, परन्तु इसको एक सुव्यवस्थित सिद्धान्त के रूप में प्रतिष्ठापित करने का श्रेय आचार्य कुन्तक को ही जाता है। कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य का जीवित अर्थात् प्राण कहा है। अतः कुन्तक की दृष्टि से काव्य में वक्रोक्ति की अपरिहार्यता स्वतः सिद्ध है।

आचार्य कुन्तक की एकमात्र रचना वक्रोक्तिजीवित उपलब्ध होती है। बहुत समय तक यह ग्रन्थ अनुपलब्ध रहा। 1923 ई० में डॉ० एस० के० डे० ने दो पाण्डुलिपियों के आधार पर इसके दो उन्मेष प्रकाशित किए। वक्रोक्तिजीवित का दूसरा संस्करण 1928 ई० में प्रकाशित हुआ। इसमें तृतीय उन्मेष के कुछ अंश सम्मिलित थे। इस ग्रन्थ का तृतीय संस्करण डॉ० डे० के सम्पादकत्व में पुनः 1928 ई० में प्रकाशित हुआ, जिसमें मूल पाण्डुलिपि के कुछ अंशों में परिवर्तन किया था, साथ ही आगे के अंशों का भी संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया गया था। इसके पश्चात् 1955 ई० में आचार्य नगेन्द्र की विस्तृत भूमिका के साथ आचार्य विश्वेश्वर ने हिन्दी व्याख्या सहित इसके चारों उन्मेष प्रकाशित किए। इसका चतुर्थ संस्करण हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय से 1995 ई० में प्रकाशित हुआ। आज यह संस्करण सर्वाधिक प्रचलित है। वक्रोक्तिजीवित का एक संस्करण आचार्य राधेश्याम मिश्र की हिन्दी व्याख्या के साथ चौखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणसी ने प्रकाशित किया है तथा वक्रोक्तिजीवित का प्रथम उन्मेष हिन्दी व्याख्या सहित आचार्य परमेश्वरदीन पाण्डेय ने चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी से 2001 (तृतीय संस्करण) में प्रकाशित किया।

वक्रोक्तिजीवित चार उन्मेषों में विभक्त है। अपने से पूर्ववर्ती अधिकांश काव्यशास्त्रीय लक्षणग्रन्थों के समान इसमें भी कारिका, वृत्ति तथा उदाहरण हैं।

कारिका तथा वृत्ति भाग के लेखक स्वयं आचार्य कुन्तक हैं तथा उदाहरण प्रसिद्ध काव्यों से लिए गये हैं। वक्रोक्तिजीवित में वृत्तिमाग कारिका के आशय को इतने विस्तार से प्रस्तुत कर देता है कि वक्रोक्तिजीवित पर अलग से कोई टीकाग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता है।

वक्रोक्तिजीवित के प्रथम तथा द्वितीय उन्मेष पर प्रकाशित पुस्तक पर सुधी पाठकों तथा जिज्ञासु विद्यार्थियों का अत्यन्त स्नेह प्राप्त हुआ। वक्रोक्तिजीवित पर जब कार्य प्रारम्भ किया गया था, तब सम्पूर्ण वक्रोक्तिजीवित पर ही हिन्दी-व्याख्या लिखने का विचार था। पूर्व में वक्रोक्तिजीवित के प्रथम तथा द्वितीय उन्मेष सम्पादन करते हुए यह अनुभव किया गया कि वक्रोक्ति सिद्धान्त का सामान्य परिचय प्राप्त करने के लिए इसके प्रथम उन्मेष का ही अध्ययन पर्याप्त है। आचार्य कुन्तक ने प्रथम उन्मेष में वक्रोक्ति के लक्षण, स्वरूप आदि का विस्तार से परिचय प्रस्तुत करते हुए वक्रता के प्रमुख छः प्रकारों का सामान्य लक्षण प्रस्तुत किया था। अतः द्वितीय उन्मेष ने आचार्य ने छः में से प्रथम तीन वक्रताओं यथा - वर्णविन्यासवक्रता, पदपूर्वार्द्धवक्रता तथा पदपरार्द्धवक्रता का सोदाहरण विशेष लक्षण प्रस्तुत किया है। इन तीन वक्रताओं के भी अवान्तर भेद होते हैं, जिनकी भी विस्तार से चर्चा आचार्य कुन्तक ने द्वितीय उन्मेष में की है। अतः इसी उद्देश्य से द्वितीय उन्मेष का भी प्रकाशन अक्टूबर 2019 में किया गया।

उसके पश्चात् वक्रोक्तिजीवित के तृतीय उन्मेष की प्रतीक्षा थी। तृतीय उन्मेष में आचार्य कुन्तक ने वस्तु किंवा वाच्यवक्रता का विवेचन विस्तार से किया है। इसके अन्तर्गत समस्त अलङ्कारवर्ग आ जाता है। अतः तृतीय उन्मेष का प्रकाशन प्रस्तुत संस्करण में किया जा रहा है। इस संस्करण में भी पूर्ववत् विस्तृत भूमिका, मूलपाठ के अन्तर्गत कारिका, अन्वय, अनुवाद, वृत्तिभाग का सुस्पष्ट विवरण तथा उदाहरणों को भी अन्वय तथा हिन्दी-अनुवाद के साथ प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक के अन्त में चार परिशिष्टों में मूलग्रन्थस्थ कारिकानुक्रमणिका, उदाहरणस्थ पद्यानुक्रमणिका, वृत्तिभाग में आए हुए अन्तःश्लोकों की अनुक्रमणिका तथा वृत्तिभाग में आई हुई अन्य आचार्यों के द्वारा रचित कारिकाओं की अनुक्रमणिका को भी प्रस्तुत किया है। पुस्तक की भाषा को अत्यन्त सरल तथा सुबोध बनाने का प्रयास किया गया है।

पूर्व में प्रकाशित वक्रोक्तिजीवित के प्रथम तथा द्वितीय उन्मेष के सम्पादन का कार्य गुरुवर आचार्य ओम नाथ बिमली ने किया था। अतः इससे निस्सन्देह कार्य की प्रतिष्ठा तथा उपयोगिता में वृद्धि हुई थी। आचार्य बिमली की गणना वर्तमान संस्कृत जगत् में व्याकरणशास्त्र तथा दर्शन के अग्रणी विद्वानों में की जाती है। वक्रोक्तिजीवित के प्रथम तथा द्वितीय उन्मेष के सम्पादन के पश्चात् आचार्य बिमली को वक्रोक्ति सिद्धान्त के विद्वान् के रूप में भी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है, ऐसा गत वर्षों में हमारा अनुभव रहा है। इस बार विभागाध्यक्ष होने से अत्यधिक व्यस्तता के कारण सम्पादक के रूप में मुझे प्रत्यक्ष आशीर्वाद भले ही न मिला हो, परन्तु निरन्तर उनका दिशानिर्देश मुझे इस कार्य में भी प्राप्त होता रहा है। अतः यह पुस्तक मैं आचार्य ओम नाथ बिमली के करकमलों में समर्पित करता हूँ। मुझे आशा है कि यह पुस्तक विशेष रूप से संस्कृत काव्यशास्त्र के जिज्ञासुओं तथा विद्यार्थियों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी। समय-समय पर मार्गदर्शन के लिए आचार्य गिरीश चन्द्र पन्त, आचार्य जगदीशप्रसाद सेमवाल, आचार्य ओम नाथ बिमली, आचार्य भारतेन्दु पाण्डेय, आचार्या मीरा द्विवेदी, डॉ० साधना कंसल तथा डॉ० सारिका वाष्र्णेय का हृदय के अन्तस्तल से आभार।

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