| Specifications |
| Publisher: Centre For Vedic Sciences, Banaras Hindu University | |
| Author Upendra Kumar Tripathi | |
| Language: Hindi | |
| Pages: 382 | |
| Cover: PAPERBACK | |
| 8.5x5.5 inch | |
| Weight 550 gm | |
| Edition: 2021 | |
| ISBN: 9788195136001 | |
| HBW331 |
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प्रो० उपेन्द्र कुमार त्रिपाठी
अध्यक्ष- वेद विभाग, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय एवं समन्वयक- वैदिक विज्ञान केन्द्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (उ.प्र.)।
पत्राचार सङ्केतः वेदभवनम् बी. १/१५० ई-१, अस्सी, वाराणसी-२२१००५ दूरभाष सं. : ९४५२५६३९९१, E-mail: dr.upendrabhu@gmail.com
शिक्षा : प्रथमा, पूर्वमध्यमा, उत्तरमध्यमा, शास्त्री, आचार्य, चक्रवर्ती (पी-एच.डी.), यू.जी.सी. नेट, योग डिप्लोमा, लब्ध स्वर्णपदक-३ (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय)।
शैक्षणिक सेवाएँ : उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ द्वारा व्यावहारिक संस्कृत प्रशिक्षण केन्द्र, कर्मकाण्ड प्रशिक्षण केन्द्र तथा राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली द्वारा संचालित त्रैमासिक अनौपचारिक संस्कृत प्रशिक्षण केन्द्र का सफलतम प्रशिक्षणपूर्वक संचालन। २७.१२.२००४ से ६.११.२००६ तक प्रवक्ता वेद/कर्मकाण्ड, हिमाचल आदर्श संस्कृत कालेज, जाङ्गला, शिमला, हिमाचल प्रदेश। ७.११.२००६ से सहायक आचार्य सम्प्रति २७.१२.२०१६ से उपाचार्य, वेद विभाग, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान सङ्काय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।
पुरस्कार एवं सम्मान: उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान द्वारा वर्ष १९९८ का 'वेदपण्डित पुरस्कार', विभिन्न संस्थाओं द्वारा लगभग बीस पुरस्कार, भारत सरकार द्वारा वर्ष २०१३ में 'महर्षि वादरायण व्यास राष्ट्रपति सम्मान, श्री गीता भवन बरमिंघम, यूके द्वारा २०१९ में सम्मान।
प्रकाशन : यजुर्वेद में पर्यावरण वर्ष २००८, चौखम्भा संस्कृत भवन, वाराणसी। जन्मोत्सव वैदिक विधि वर्ष २०१४, भारतीय विद्या मन्दिर, कोलकाता। कात्यायन श्रौतसूत्र भाष्य भूमिका वर्ष-२०१५, (सरलावृत्ति टीका-हिन्दी अनुवाद सहित), शिवसङ्कल्प वर्ष-२०१५, शारदा संस्कृत संस्थान, वाराणसी। वेदों में पर्यावरणीय चेतना, वर्ष-२०१९, पिल्यिम्स पब्लिशिंग, वाराणसी, दिल्ली, ६० से अधिक शोध-लेखों का राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशन ।
शोध संगोष्ठियों में सहभागिता एवं आयोजन लगभग १०० राष्ट्रीय एवं २० अन्तर्राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में पत्रवाचन, मुख्यवक्ता, सत्र-संयोजन एवं सत्राध्यक्ष के रूप में सहभागिता। अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय संगोष्ठियों के संयोजक/आयोजन सचिव। अंतर्राष्ट्रीय-३, राष्ट्रीय-१०, शोधोपाधि प्राप्त छात्र-०६, शोधरत-०५, पी.डी. एफ. उपाधि प्राप्त-०१, पी.डी.एफ. शोधरत-०१। अन्य प्रशासनिक दायित्व : कार्यक्रम अधिकारी, राष्ट्रीय सेवा योजना १७ दिसम्बर, २०१२ से ३१ मार्च, २०१६ तक, छात्रावास-संरक्षक (रुइया संस्कृत ब्लॉक), २०१४ से १४ मार्च, २०१९ तक, प्रशासनिक संरक्षक- १५ जनवरी, २०१९ से अब तक, पूर्व महामंत्री २०१० से ३० अप्रैल, २०१६ तक एवं वर्तमान अध्यक्ष, वर्ष-२०१९ से महामना मालवीय मिशन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय इकाई, सचिव- गीता समिति मालवीय भवन, २०१४ से अब तक, मानित निदेशक २३ जनवरी, २०१५ से मई २०१६ तक, समन्वयक- वैदिक विज्ञान केन्द्र, अगस्त २०१७ से अब तक, अध्यक्ष- वेद विभाग, २६ सितम्बर, २०१७ से अब तक।
वेद विश्व का प्राचीनतम साहित्य है, जिसके माध्यम से ज्ञान के विकास की यात्रा प्रारम्भ हुई। वस्तुतः वेद विश्व के मौखिक एवं लिखित साहित्यों में प्राचीनतम्, प्रामाणिक एवं वैज्ञानिक ग्रन्थरत्न हैं। वेद के रूप में प्राप्त ज्ञान परमात्मा के अस्तित्व की भाँति शाश्वत है। दूसरे रूप में यदि कहें तो वेद परमात्मा का वाङ्मय विग्रह है। अपने गहन चिन्तन में ऋषियों ने अनुभव किया कि शुद्ध चेतना ब्रह्माण्ड में और उसके परे असंख्य आकारों एवं रूपों में प्रकट होती है। वेद में प्रतिपादित साधन विश्व के सभी चेतन-अचेतन प्राणियों में चेतना (जीवन-ऊर्जा) के गुणात्मक पक्षों को विकसित एवं सक्रिय करने के वैज्ञानिक स्रोत हैं। यह ज्ञान परम्परा मूलतः 'वेद' के रूप में स्थित होकर ऋक्, यजुष्, साम और अथर्व के रूप में अपने कलेवर का विस्तार करते हुये कालक्रम से साम्नाय, आम्नाय, श्रुति, स्वाध्याय, निगम एवं आगम आदि अनेक नामों से अभिहित की गई।
भारतीय ज्ञान परम्परा में आगम (वैष्णव, शैव और शाक्त), वास्तुकला, ज्योतिष, एवं खगोल विज्ञान, ब्रह्माण्ड, चिकित्सा, शल्यचिकित्सा, पशुचिकित्सा, सैन्य रणनीति, योग, गणित, कृषिविज्ञान, धातुविज्ञान जैसे अनेक विषयों पर विशाल साहित्य का सृजन हुआ है जिसकी आधारभूत सामग्री वैदिक चिन्तन के सातत्य में विकसित हुई है। सबसे रोचक तथ्य यह है कि पश्चिमी देशों में जब मूलभूत सिद्धान्तों को समझने के प्रयास हो रहे थे, उससे सदियों पूर्व हमारे प्राचीन भारतीय आचार्यों ने अपने विषय में अत्यधिक उत्कृष्टता प्राप्त कर ली थी।
प्राचीन भारत में वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान के उपयोग एवं प्रसार से सम्बन्धित अनेक साक्ष्य उपलब्ध हैं। प्राचीन भारत में उपलब्धियों एवं आविष्कारों की सूची विस्तृत है तथा उनको आज विश्वस्तर पर मान्यता - भी प्राप्त है। वैज्ञानिकों, गणितज्ञों एवं चिकित्सकों का विश्व समुदाय भारतीय ऋषि-परम्परा-बौधायन, आपस्तम्ब एवं कात्यायन जैसे प्रवचनकारों, भरतमुनि जैसे पंचम वेद के प्रणेता, दत्तिल एवं मतंगमुनि जैसे संगीतज्ञों के योगदान के साथ-साथ लगध, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, भास्काराचार्य प्रथम एवं द्वितीय, सुश्रुत एवं चरक जैसे आयुर्विज्ञान के प्रणेताओं के योगदान से भी भलीभाँति परिचित हैं। भारत को केवल विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की ही नहीं, अपितु ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में 'विश्वगुरु' होने का गौरव प्राप्त है।
ऋषियों ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सभी मौलिक तत्त्वों की विवेचना की है। मूलतः वेदों में ज्ञान-विज्ञान के मूलतत्त्व प्रतीकात्मक रूप में प्राप्त होते हैं जिनका विकास वेदाङ्गों, उपवेदों और परवर्ती साहित्य में देखने को प्राप्त होता है। सामान्यतः धारणा रही है कि भारत की ज्ञान परम्परा सैद्धान्तिक क्रम में रही है. व्यावहारिक पक्ष का उसमें आभाव था, जबकि भारतीय शास्त्रों में अध्ययन एवं परीक्षण की दोनों विधियों रही हैं।
यह सर्वविदित है कि राष्ट्र की गौरवशाली बौद्धिक परम्परा है. लेकिन राष्ट्र में प्रचलित शिक्षा प्रणाली हम सबको अपनी जड़ों, परम्पराओं, संस्कृति और विज्ञान के बारे में जानने के लिए प्रोत्साहित करने में पूरी तरह सफल नहीं रही है। हमारे शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में डेमोक्रेटिक्स, आर्किमिडीज, न्यूटन, प्लूटो आदि के विषय में तो विस्तार से पढ़ाया जाता है किन्तु महामुनि वेदव्यास, बौधायन, कणाद, मनु, पतंजलि, चाणक्य, ब्रह्मगुप्त, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, भास्कराचार्य प्रथम एवं द्वितीय आदि के विषय में नहीं। इस महनीय बौद्धिक परम्परा पर नव्य-साहित्य का सृजन भी अत्यल्प हो रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि भारतीय शिक्षा प्रणाली में अधिकांश ग्रन्थ पाश्चात्य केन्द्रित हैं। कई इतिहासकारों ने विभिन्न अकादमिक क्षेत्रों में गैर-पश्चिमी संस्कृतियों के वैज्ञानिक योगदान को विस्मृत कर देने की इस चूक को स्वीकार भी किया है। वस्तुतः वैदिक ज्ञान-विज्ञान, गणित, अन्तरिक्ष विज्ञान से सम्बन्धित सभी ज्ञान अरब देशों के माध्यम से यूरोप तक पहुँचा, जिसके बाद वहाँ के वैज्ञानिकों ने अध्ययन एवं अनुसंधान के द्वारा उसे और विकसित किया। इसके सन्दर्भ एवं ऐतिहासिक साक्ष्य प्राप्त भी होते हैं। यूँ कहें की विश्व में विज्ञान के मूल संकल्पना का आधार वैदिक ज्ञान-विज्ञान ही है।
हमारी ऋषि परम्परा में विज्ञान के प्रयोगधर्मी पक्ष एवं संकल्पनायें दृढ़ थी, परन्तु देश पर अनेक आक्रान्ताओं ने इसे नष्ट करने का पूर्णतः प्रयास किया, जिसके कारण भारत शनैः शनैः अपने प्राचीन ज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के साथ सम्पर्क खोता गया और इस प्रकार अपने बहुमूल्य वैदिक ज्ञान-विज्ञान से भी दूर होता चला गया। हमारी प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की परम्परा मुख्यतः मौखिक रूप में प्रवाहमान रही है, जो शनैः शनैः लुप्त होती जा रही है जिसे सभी के लिए ग्राह्य बनाने हेतु उनको संरक्षित तथा उसकी विशद व्याख्या करने की वर्तमान परिदृश्य में महती आवश्यकता है। आधुनिक भारत में वर्तमान में प्रचलित ज्ञान की परम्परा प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धियों एवं आविष्कारों को प्रदर्शित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। सम्भवतः समय के साथ अथवा प्राकृतिक अपघटन इत्यादि के कारण इनमें कई विसंगतियाँ आ गयी होंगी और धीरे-धीरे हम अपनी ज्ञान-परम्परा, विज्ञान एवं चिकित्साज्ञान आदि से विलग होते जा रहे हैं। समाज में अनेक लोग आज यह भी नहीं जानते कि सदियों पूर्व हमारा वास्तविक भारत कितना यशस्वी एवं गौरवशाली रहा है।
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