"वीर वैरागी" का पांचवां संस्करण पाठकों को भेंट करते हुए प्रस्तावना के रूप में कुछ शब्द जोड़ने की आवश्यकता है या नहीं, यह निर्णय करना कठिन हो रहा है। इस पुस्तक का जन्म हुए आधी शताब्दी पूर्ण हो रही है। देखा जाए तो इस काल में इतना पानी नदियों में से बह गया है कि सागर का सारा जल-भण्डार ही बदल चुका है। परतन्त्रता की काली रात कट गई, एक स्वाधीन देश के रूप में इस प्राचीन राष्ट्र का संसार के रंगमंच पर पदार्पण हो चुका. परन्तु तीन दशकों के बौद्धिक मन्थन के बाद भी भारत अनेक प्रश्नचिह्नों को अपने सामने यथावत् उपस्थित पाता है। पिछले दिनों में इतिहास-लेखन के दृष्टिकोण को लेकर जो विवाद उभरकर आया, उसने एक बार फिर इस तर्क को बल दिया है कि उन्हीं घटनाओं के प्रस्तुतीकरण में इतना अन्तर हो सकता है कि हम पूर्णतया विरोधी निष्कर्षों पर पहुंच जाएं।
श्री भाई परमानन्द जी भारत के सर्वप्रथम राष्ट्रीय इतिहासकारों में से थे। विदेशी शिक्षा के बहिष्कार-आन्दोलन के समय जब लाहौर में 'कौमी विद्यापीठ' की स्थापना की गई तब वे उसके उपकुलपति, शिक्षा समिति के अध्यक्ष और इतिहास के प्राध्यापक बनाए गए-जिस तिहरे बोझ का उन्होंने मानसेवा के रूप में वहन किया। देश के इतिहास के विषय में उनका एक स्वतन्त्र, राष्ट्रीय दृष्टिकोण था, जो सबसे पहले उनके 'भारतवर्ष का इतिहास' नामक ग्रन्थ में प्रकट हुआं। अंग्रेज सरकार ने उस पुस्तक को जब्त तो किया ही, इसके कारण भाई जी पर पहला मुकदमा बना। और वे ब्रिटिश शासकों के कोपभाजन बन गए। इस प्रकार उनके जीवन में. एक ऐसा मोड आया जिसने उन्हें फांसी के फन्दे तक पहुंचा दिया। यह दृष्टि उन सभी पुस्तकों की तह में रही जो पंजाब, महाराष्ट्र, राजस्थान (तथा यूरोप) के इतिहास पर उन्होंने लिखीं।
उनका मत था कि 'यदि इतिहासकार दूसरी जाति का हो और अपनी जाति की श्रेष्ठता तथा वर्णित जाति की कमजोरी सिद्ध करने की नीयत रखता हो तो वह तथ्यों को ऐसे मरोड़कर. प्रस्तुत करेगा कि उसका लक्ष्य प्राप्त हो सके। सच में, घटनाएं वही हों तो भी उनके वर्णन से विपरीत परिणाम प्राप्त हो सकता है। आखिर, इतिहास ही है, जो राष्ट्र के आबालवृद्ध को मंत्रमुग्ध 1 करता है। विजेताओं के बारे में प्रायः यह होता है। वे पराभूत जाति का इतिहास इस दृष्टिकोण से तैयार करते हैं कि विजित लोगों की राष्ट्रीय न्यूनताओं पर बल देकर उन्हें इस ढंग से उजागर किया जाए कि उनमें से देशभक्ति का गुण पूरी तरह लुप्त हो जाए।" वास्तव में इतिहास की इन रचनाओं में शासकों की विजय यात्रओं के सिवा कुछ होता ही नहीं, और उन्हें राष्ट्र के लोगों के अध्ययन योग्य राष्ट्रीय ग्रन्थ कदापि नहीं माना जा सकता। विजेता के इतिहास का विजितों के इतिहास के साथ वैसा ही सम्बन्ध है जैसा मनुष्य के शरीर के साथ रोग के कीटाणुओं का होता है। मानवी काया में प्रविष्ट होकर कृमि निस्सन्देह रोग पैदा करते हैं, परन्तु उन कीटाणुओं का इतिहास मनुष्य का इतिहास नहीं होता।
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