मैथिल कोकिल विद्यापति हिन्दी साहित्य के आदिकाल के एक विशिष्ट कवि हैं। भारतीय सन्त महन्तों, महाकवियों, दार्शनिकों ने अपने ग्रन्थों में कभी भी आत्मश्लाघा की ओर ध्यान नहीं दिया। उनका ध्यान सदैव ज्ञान की धारा प्रवाहित करने में लगा रहा। यही कारण है कि विद्यापति, कबीर, सूर, तुलसी, जायसी आदि कवियों का जीवनवृत्त अद्यावधि विद्वानों के लिए विवाद का विषय बना रहा है। इन कवियों का जीवनवृत्त जानने के लिए विद्वानों ने अन्तः साक्ष्य एवं बहिर्साक्ष्य का आश्रय लिया है। कहीं-कहीं तो पूर्ववर्ती, परवर्ती एवं समसामयिक कवियों के जीवनवृत्त को आधार मानकर तथा कुछ अनुमान का सहारा लेकर जीवनवृत्त को उद्घाटित करने का प्रयास किया गया है। कवि विद्यापति भी इन विवादों से वंचित नहीं रहे हैं। उनके जन्म के सम्बन्ध में विवाद, वे भक्त कवि थे या श्रृंगारी इस पर विवाद, वे शिव भक्त थे, विष्णु भक्त थे, कृष्ण भक्त थे इस पर विवाद, वे पंच देवोपासक थे, एकेश्वरवादी थे, रहस्यवादी थे, स्मार्त या शाक्त थे इस पर विवाद और अन्त में वे बंगाली थे या मैथिली इस पर भी आज तक विवाद चला आ रहा है। इन सभी विवादों पर विद्वान एक मत नहीं हैं। सबने अपने अलग-अलग मत प्रतिपादित किये हैं। किन्तु इन सभी विवादों के घेरे में घिरे होने पर भी उनके ज्ञान की अजस्रधारा कहीं अवरुद्ध नहीं हुई है और न ही उन पर कहीं प्रश्न चिह्न लगे हैं।
आज हिन्दी साहित्य में विद्यापति का वही स्थान है जो संस्कृत साहित्य में जयदेव का है। विद्यापति पर अपने पूर्ववर्ती जयदेव के 'गीत गोविन्द' का पूर्ण प्रभाव है। जो लोकप्रियता संस्कृत साहित्य में जयदेव को प्राप्त है वही हिन्दी साहित्य में विद्यापति को मिली है। विद्यापति की लोकप्रियता के सम्बन्ध में डॉ० शिवप्रसाद सिंह की ये पंक्तियाँ उद्धरणीय हैं कि "लोकप्रियता सदा ही लोक मानस की रंगीन कल्पनाओं से अभिषिक्त हुआ करती है। जनता के पास अपने प्रिय व्यक्ति के लिए प्रतिदान में समर्पित करने के लिए केवल कल्पना के सुमन होते हैं। इसी कारण जो व्यक्ति जितना ही अधिक लोकप्रिय होता है, उसके व्यक्तित्व के चारों ओर निजंधरी (Legend) कथाओं का जाल भी उतना ही सघन होता है। विद्यापति का जीवनवृत्त भी इसी प्रकार की रंगीन कथाओं से आच्छन्न है।" विद्यापति की रचनाओं में उनकी 'पदावली' प्रमुख है, जिसमें एक ओर भक्ति भावना है और दूसरी ओर विशुद्ध श्रृंगार का चित्रण है। अतः कह सकते हैं कि उनकी 'पदावली' भक्ति और श्रृंगार का गंगा-जमुनी संगम है।
विद्यापति की लोकप्रियता से अभिभूत होकर ही मैंने उनकी 'पदावली' की समीक्षा लिखने का साहस किया है। इस पुस्तक में मैंने कुछ नया न लिखकर विभिन्न विद्वानों के मतों का ही अनुसरण किया है लेकिन विषय के स्पष्टीकरण में नीर-क्षीर विवेक का सहारा लिया है। चूँकि विद्यापति लगभग सभी विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैं इसलिए पुस्तक को छात्रोपयोगी बनाने में विशेष ध्यान दिया है। अन्त में मैं उन सभी विद्वानों, समीक्षकों एवं लेखकों के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ जिनका यत्किंचित सहयोग मुझे पुस्तक लिखने में मिला है। इसके साथ ही श्री रामसिंह खंगार, संचालक चिन्तन प्रकाशन कानपुर का मैं हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ जिनके उदार सहयोग से यह पुस्तक प्रकाशित हो सकी है। मुझे विश्वास है कि यह पुस्तक विश्वविद्यालयीय छात्रों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
Hindu (हिंदू धर्म) (13443)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (714)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2075)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1543)
Yoga (योग) (1157)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24544)
History (इतिहास) (8922)
Philosophy (दर्शन) (3591)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist