प्राचीन मानव संस्कृति में अमृत और विष का विचार बहुत पुराना है। इसमें विषय यथार्थ है। विष एक सच्चाई है। भारतीय वाङ्मय में समुद्र-मंथन की घटना का उल्लेख है। इसमें एक संदर्भ यह आता है कि समुद्र-मंथन में अमृत निकलने (प्राप्ति) के पूर्व विष निकला था। उसे भगवान शंकर ने पिया, पर उसे अपने गले तक ही जाने दिया। परिणामस्वरूप उनका गला नीला पड़ गया। अतः वे नीलकंठ कहलाए। इससे भी पूर्व जब वासुकी को समुद्र-मंथन के समय रस्सी के रूप में प्रयुक्त किया गया था तो उसके मुँह से भी विष के झाग निकलते रहे और उसके प्रभाव के कारण असुर पक्ष को काफी क्षति हुई। यह कथा विष और उसके प्रभाव के संबंध में हमें चेतावनी देती है। आधुनिक युग में विष का प्रभाव बहुत व्यापक है। औद्योगिक इकाइयों में प्रयुक्त रसायन कई प्रकार के विषैले प्रभाव को पैदा करते हैं। समय-समय पर विश्व के कई देशों में इस प्रकार की दुर्घटनाएँ होती हैं, जिनसे जहरीली गैसों के रिसाव के कारण जनहानि होती है। कीटनाशक उत्पादों की अधिकता से हम भली-भाँति परिचित हैं।
हमारे जीवन की निर्भरता अनेक रूपों में किसी-न-किसी प्रकार के विष के प्रयोग पर निर्भर हो चुकी है। ऐसी स्थिति में विष क्या है? उसका मानव जीवन पर क्या प्रभाव है? और उसके प्रयोग की सीमा क्या होनी चाहिए? इन प्रश्नों पर विचार करने की आवश्यकता है। इस दृष्टि से विष विज्ञान का अध्ययन महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है। पुस्तक को विभिन्न विष एवं विषाक्त पदार्थों और जीवों पर उनके प्रभावों पर व्यापक तथा सुलभ अवलोकन प्रदान करने की दृष्टि से डिजाइन किया गया है। यह पुस्तक विष विज्ञान, रासायनिक विष विज्ञान, पर्यावरण विष विज्ञान से संबंधित सिद्धांतों के संबंध में मौलिक ज्ञान प्रदान करती है। इस पुस्तक में विष विज्ञान के लगभग सभी आवश्यक पहलुओं को शामिल करते हुए विचार किया गया है।
विष विज्ञान एक अंतःविषय है। इसके लिए कई क्षेत्रों के ज्ञान की आवश्यकता होती है। इस पुस्तक में विष विज्ञान का प्रारंभिक स्तर का ज्ञान समाहित किया गया है, जो धीरे-धीरे सभी ज्ञात जहरीले पदार्थों के भौतिक और रासायनिक अध्ययन पर व्यापक जानकारी विकसित करती है। यह पुस्तक आम पाठकों को ध्यान में रखकर लिखी गई है। अतः आशा है कि यह पुस्तक पाठकों का ज्ञानवर्द्धन करने के साथ-साथ उन्हें अवश्य पसंद आएगी।
मैं डॉ. साधना श्रीवास्तव, वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी यूसिक, जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर (म.प्र.) को विशेष रूप से धन्यवाद देती हूँ, जिन्होंने मुझे पुस्तक लिखने में सहयोग किया एवं प्रो. राजेंद्र कुमार दुबे, विभागाध्यक्ष, प्राणीशास्त्र, शा. कमलाराजा कन्या महाविद्यालय, ग्वालियर को तहेदिल से धन्यवाद देती हूँ, जिन्होंने समय-समय पर अपने बहुमूल्य सुझाव दिए। मैं डॉ. प्रशांत शर्मा, शिक्षक रसायनशास्त्र, द पैसिफिक इंटरनेशनल पब्लिक स्कूल, ग्वालियर को भी धन्यवाद देती हूँ, जिन्होंने मुझे सहयोग प्रदान किया।
मैं अपने पति श्री कुलदीप शर्मा (एडवोकेट) की आभारी हूँ, जिन्होंने मुझे पुस्तक के लेखन-कार्य के लिए प्रोत्साहित किया। इसके अतिरिक्त में प्रिय डॉ. पूर्वा शर्मा एवं प्रिय ध्रुव शर्मा का भी आभार व्यक्त करती हूँ, जिन्होंने इस पुस्तक के लेखन-कार्य में मुझे अपना बहुमूल्य सहयोग प्रदान किया।
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