औरतों के मामलों पर लिखते, सोचते-विचारते तीस साल से अधिक हुए। इन सालों में काफ़ी परिवर्तन हुए हैं। शिक्षा और आत्मनिर्भरता पर विचार नीचे तक जा पहुंचा है। मगर सिर्फ़ विचार से क्या होता है, उसका क्रियान्वयन भी होना चाहिए।
आज छोटे-छोटे शहरों में उच्च शिक्षित लड़कियां घरों में बैठी हैं। इन शहरों में उनके रोज़गार के कोई अवसर नहीं हैं। उन्हें रोजगार और आगे बढ़ने के अवसर चाहिए। ये अवसर कैसे मिलें, यह सोचने की बात है।
रोजगार के अवसर यानी कि बाजार में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना और श्रम का उचित मूल्य जो स्त्रियों को कभी नहीं मिलता। वे जीवन भर घरों में खटती हैं। इसके बदले उन्हें घरेलू, अनपढ़, काम की न काज की सौ मन अनाज की, जैसी उपाधियों से विभूषित किया जाता है। एक तरफ़ बाज़ार स्त्रियों को बहुत सी बेड़ियों से मुक्त कर सकता है, दूसरी तरफ़ अपने मुनाफ़े के लिए बाजार हर तरह की रूढ़ियों से समझौता भी कर सकता है। इसका एक उदाहरण बार्बी को बुरक़ा पहनाना है। इन दिनों एक-दूसरे का गला फाड़ विरोध करते धर्म और बाजार एक-दूसरे से समझौता करते नजर आते हैं। दोनों मुनाफ़ाख़ोर बनकर अपनी राह में रोड़े अटकाने वाले को पीछे धकेल रहे हैं।
इस पुस्तक के लेख समय-समय पर लिखे गए हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छपे हैं। यह लेखिका उन पत्र-पत्रिकाओं और यात्रा बुक्स की नीता जी और शुचिता की आभारी है, जिन्होंने इस पुस्तक के प्रकाशन की योजना बनाई।
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