हिन्दी साहित्य में व्यंग्य का अभाव है, व्यंग्य नगण्य है, व्यंग्य एक शैली है, व्यंग्य एक अभिव्यक्ति-प्रणाली है आदि बातें हिन्दी के आलोचक कहते आ रहे हैं। इतना ही नहीं, व्यंग्य को क्षुद्र भी माना जाता रहा। लेकिन आज हिन्दी में व्यंग्य एक आधुनिक विधा है। स्वातन्त्र्योत्तर काल के अनेक वैशिष्ट्यों में व्यंग्य का विधा के रूप में उदय होना सार्थक एवं सयुक्तिक है।
आज के नियोजन के युग में विसंगति जगह-जगह पर दिखाई देती है। व्यंग्य समाज की विकृति स्थितियों को जितनी स्पष्टता से प्रकट करता है उतनी साहित्य की अन्य विधाएँ नहीं कर पार्टी। इसीलिए व्यंग्य आज लोकप्रिय हो रहा है।
व्यंग्य के संदर्भ में उसके वैशिष्ट्य, तत्व, लक्ष्य, प्रकार, महत्व आदि का पूर्णतया विधा के रूप में चर्चा या आलोचनात्मक लेखन नहीं है। इसीलिए शायद मनमोहन मदारिया ने अपनी 'मेरी प्रिय व्यंग्य रचनाएँ' की प्रस्तावना में लिखा है कि, "व्यंग्य साहित्य पर सलीके की एक थीसीस तक नहीं है।" व्यंग्यात्मक साहित्य का समग्रता से अध्ययन करने के पश्चात् ही इसे एक स्वतन्त्र विधा के रूप में संस्थापित किया जा सकता है। व्यंग्य पर अब तक जो आलोचनात्मक काम हुआ है वह भी थोड़ा ही हुआ है, जो हुआ है वह विधा के रूप में नहीं हुआ है। कुछ आलोचकों ने तो उसे हास्य के अन्दर ही रखा है। व्यंग्य गद्य में है, पद्य में है अतः शायद उसे स्वतन्त्र विधा नहीं मानते हों, लेकिन मैंने उसे पूर्ण रूप से स्वतन्त्र विधा के रूप में प्रतिपादित किया है।
इस क्रम में मैंने व्यंग्य का पिछड़ा रूप देखा है उसके कुछ प्रमुख तत्वों को भी जोड़ा है। व्यंग्य के बारे में जो गलत धारणा रही है- जैसे गाली-गलौज वाला रूप, उसे नकार कर नये रूप में कुछ सिद्धान्त प्रस्थापित किए हैं। व्यंग्य किस प्रकार निर्मित होता है? शब्द से, घटना से, वर्णन से या किसी सुभाषित को अनुचित प्रसंग में उद्धृत कर भी व्यंग्यकार अपनी विधा को सम्पन्न करते हैं। अनेक व्यंग्यकारों के साहित्य का विचार गम्भीरता से नहीं किया गया है। अतः व्यंग्य साहित्य पर गम्भीरता से अध्ययन कर उसे एक विधा के रूप में मूल्यांकित करने का प्रयास प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में किया गया है। सम्पूर्ण शोध-प्रबन्ध सात अध्यायों में सम्पृक्त है।
प्रथम अध्याय में व्यंग्य विधा के सैद्धांतिक स्वरूप के विश्लेषण पर विचार किया गया है। व्यंग्य विधा की स्थापना करते हुए उसकी स्वीकृति एवं विधा निर्णयन के प्रतिमान को स्पष्ट किया गया है। व्यंग्य विधा को स्पष्ट करने हुए एतद् विषयन निष्कर्ष प्रस्तुत किए गये हैं।
द्वितीय अध्याय में व्यंग्य विधा के निजी शास्त्र पर प्रकाश डाला गया है। हिन्दी में व्यंग्य विधा का व्यामिश्र रूप है। कहानी और निबन्ध से व्यंग्य का पार्थक्य स्पष्ट करते हुए व्यंग्य विधा की अवधारणा पर प्रकाश डाला गया है। व्यंग्य विधा के उपकरण पर विचार करते हुए आज की दुनिया में व्यंग्य विधा के प्रयोजन पर विशेष जोर दिया गया है।
तृतीय अध्याय में हिन्दी में अभिव्यक्त व्यंग्य-विधा की पृष्ठभूमि पर विचार किया गया है। प्रत्येक साहित्य में व्यंग्य-विधा के तत्वों को निरूपित करते हुए स्वातन्त्र्यपूर्व (1900-1947) हिन्दी साहित्य में व्यंग्य विधा के तत्वों का भी अध्ययन एवं विचार किया गया है। स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी साहित्य में व्यंग्य विधा की प्रेरक परिस्थितियों का उल्लेख करते हुए तत्कालीन परिस्थिति पर प्रकाश डाला गया है। भारतीय भाषा-साहित्य अनेक भाषाओं में बोला एवं लिखा जाता है। अतः भारत की प्रमुख संस्कृत, उर्दू, मराठी, सिंधी, गुजराती, तेलगू आदि भाषाओं में व्यंग्य की समानधर्मा विचारों पर प्रकाश डाला गया है।
चतुर्थ अध्याय में हिन्दी में व्यंग्य विधा के विकास का आलेख प्रस्तुत किया गया है। हिन्दी साहित्य की विधाओं में व्यंग्य एक नई पौध है इसे स्पष्ट करते हुए हिन्दी के व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई, रवीन्द्रनाथ त्यागी, बरसानेलाल चतुर्वेदी, शरद जोशी लतीफ घोंघर्षी, नरेन्द्र कोहली, श्रीलाल शुक्ल, रोशनलाल, सुरीरवाला, अमृतराय, कुबेरनाथ राय, विद्या निवास मिश्र, शंकर पुणतांबेकर आदि प्रमुख व्यंग्यकारों की सर्जना का परिचय देते हुए उनकी विशेषताओं का विवेचन किया गया है।
पंचम अध्याय में हिन्दी व्यंग्य लेखन शैली पर विशेष प्रकाश डाला गया है। अनेकानेक व्यंग्यकारों ने व्यंग्य विधा को समृद्ध किया है, योगदान दिया है। अतः हिन्दी व्यंग्य का कथ्य निरूपण पर विचार करते हुए व्यंग्य भाषा की विविधताओं पर समालोचना प्रस्तुत की गई है। हिन्दी व्यंग्य में प्रयुक्त अनेक विधांतर का विवेचन करते हुए व्यंग्य विधा की बहुआयामी शैलीय विविधताओं पर विशेष प्रकाश डाला गया है।
षष्ठ अध्याय में हिन्दी व्यंग्य लेखन की उपलब्धियाँ और सीमाओं को विवेचि किया गया है। आधुनिक काल में साहित्य की अन्य विधाओं से हिन्दी व्यंग्य विधा की लोकप्रियता बहुत बढ़ रही है। इस लोकप्रियता पर विचार करते हुए हिन्दी व्यंग्य की प्रभाव-सत्ता को स्पष्ट कर दिया है। समकालीन हिन्दी व्यंग्य से उभरते लघु-व्यंग्य को निरूपित करते हुए हिन्दी व्यंग्य की सीमाएँ निर्धारित की गई हैं।
सप्तम् अध्याय में शोध निष्कर्ष के अन्तर्गत हिन्दी व्यंग्य विधा के सन्दर्भ में विवेचन से प्राप्त विभिन्न निष्कर्षो को समग्रतः प्रस्तुत करते हुए व्यंग्य विधा के भविष्य की सम्भावनाओं की ओर संकेत किया गया है।
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