काशी की राजकुमारी विद्योतमा को 'विदुषी' माना गया है। परंपरा से राजसी परिवारों की ज्ञान के प्रति पिपासा, जिज्ञासा और विद्वता का सम्मान, उनकी शोभा और जीवन-आदर्श रहा है।
राजकीय वैभव, कुलीनता, सौम्यता, ब्रह्माण्डीय विविध ज्ञान-वेद, उपनिषद्, काम-शास्व व लोक-शास्व से कालिदास नामावली सातों रचनाएं पूरी तरह संवलित है। राजसी वैभव के अनुरूप रलों का व्यवहार, वैभव, आचार, विचार और व्यवहार, महलों की अट्टालिकाऐं तथा अंतःपुर का वैभव, पाठकों को सौम्य वैभवपूर्ण संसार से परिचित करातां है जो स्वयं में अद्भुत है। आसक्ति-विरक्ति के मध्य अत्यंत सूक्ष्म रेखा है। रचयिता में द्रष्टाभाव प्रधान रहता है जो द्रष्टा है यही प्रष्टा है।
इस साहित्य का परिपाक यह स्पष्टतः संकेत करता है कि इन कालजयी ग्रंथों की रचयिता राजसी परिवेश से संवलित कोई विदुषी स्वी ही हो सकती है। यदि हम कालिदास और काशी की राजकुमारी विदुषी विद्योत्तमा के विवाह संबंधी शास्वार्थपरक लोक-कथा- किंवदंती को ध्यान में लाएँ, और वहीं दूसरी ओर इन सातों ग्रंथों के विशाल साहित्य के अंतःसाक्ष्यों का आद्योपान्त सूक्ष्म अन्वेषण विश्लेषण कर चिंतन करें, तब स्वतः इनका प्रमाण मिल जाएगा कि विदुषी विद्योत्तमा ही महाकवि कालिदास की सातों कृतियों की रचपिता रही हो। उन्होंने अपने पति के नाम पर साहित्य लेखन कर, स्वयं को विलुप्त करके भी अपनी सृजनात्मकता को निरन्तर अभिव्यक्त करती रहीं। स्वी-जीवन की साधनावस्था है जबकि उत्तरकाल इसकी विद्धावस्था।
महाकवि कालिदास विश्व साहित्य की महान विभूतियों में से एक के रूप में जाने जाते हैं, जो संभवतः तीसरी या चौथी शताब्दी में हुए थे। उनकी सात महान कृतियाँ, चार काव्य और तीन नाटक विश्व साहित्य की श्रेष्ठ धरोहर हैं जिनमें छः सगों वाले काव्य ऋतुसंहारम्, दो भागों में मेघदूतम्, सरतह सगर्गों में कुमारसंभवम् तथा उन्नीस सर्गों में रघुवंशम्-ये दो महाकाव्य और तीन प्रसिद्ध नाटकों मालविकाग्निमित्रम्, विक्रमोवर्शीयम् तथा अभिज्ञानशाकुंतलम् हैं। जर्मन, अंग्रेज़ी और कई अन्य यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद के बाद ही विशेष रूप से शाकुन्तलम् को पूरी दुनिया में अत्यधिक प्रशंसा मिली। संस्कृत के एक लोकप्रिय पद के अनुसार, 'काव्यात्मक रचना में नाटक को सबसे रम्य माना गया है और नाटकों में शाकुन्तलम् सर्वोत्कृष्ट है।
कालिदास के ग्रंथ तो विश्व विख्यात हैं परंतु उनके जीवन के विषय में बहुत कम जानकारी है। विडंबना यह है कि यह जनश्रुति है कि वह अनपढ़ लकड़हारे थे। यह भी जनश्रुति है कि जिन पंडितों को काशी की विदुषी राजकुमारी विद्योत्तमा ने शास्त्रार्थ में पराजित किया था, उन्होंने गूढ़ षडयन्त्र के माध्यम से राजकुमारी विद्योत्तमा का विवाह कालिदास से करवा दिया। ऐसी जनश्रुति है कि राजकुमारी से प्रतिशोध लेने के लिए पंडितों ने कालिदास को महान विद्वान के रूप में प्रस्तुत किया जिन्होंने मूक शास्त्रार्थ में राजकुमारी को चुनौती दी। इसके बाद पाँच उंगलियों वाला विश्व विख्यात शास्त्रार्थ हुआ जिसके माध्यम से राजकुमारी विद्योत्तमा को उस व्यक्ति से विवाह करने के जाल में फंसाया गया जो इतना मूर्ख था कि उसी डाल को काट रहा था जिस पर वह बैठा था। यह एक रहस्य है कि कैसे एक अनपढ़ व्यक्ति विश्व का महानतम साहित्यकार बन गया।
डॉ. कमल किशोर मिश्र अनेक वर्षों से इस अनूठे सिद्धांत पर काम कर रहे हैं कि राजकुमारी विद्योत्तमा ही वास्तव में इन महान प्रसिद्ध ग्रंथों की रचयिता हैं जो कालिदास के द्वारा रचित कहे जाते हैं। उस काल में माना जाता था कि महिलायें रचनाकार नहीं थीं, इसीलिए उन्होंने अपने पति को उन रचनाओं का रचयिता बताया ताकि वह उन पंडितों को गलत सिद्ध कर सकें जिन्होंने शास्त्रार्थ में धोखे से उनका विवाह करवा दिया था। यह चौंकाने वाला सिद्धांत है, जिसके समर्थन में डॉ. मिश्र ने अनेक स्रोतों से सामग्री जुटाई है जिसमें भारत और श्रीलंका मुख्य हैं। ऐसा माना जाता है कि कालिदास की मृत्यु श्रीलंका में हुई थी, जहाँ स्थानीय स्तर पर तत्संबंधी लोक कथायें हैं जो इस सिद्धांत को प्रमाणित करती हैं।
भारतीय और श्रीलंकाई जनश्रुति पर आधारित आख्यान परंपरा, प्रस्तुत साहित्य का अंतः साक्ष्य, अभिलेख और तत्कालीन इतिहास प्रस्तुत शोध की आधार भूमि हैं। इस संदर्भ में, पाण्डुलिपि विज्ञान तथा तत्संबंधी अन्य तकनीकी ज्ञान के साथ स्त्री होने का अर्थ, स्त्रीत्व का अस्तित्व, स्त्री मर्यादित स्वतंत्रता और प्रेम की जीवन्त मूर्ति, स्त्री स्वयंसिद्धा, सम्मान, स्वाभिमान एवं उनके स्वभाव के विविध पक्ष, स्त्री नीति व उनकी कूटनीति; उनकी आत्मगत अभिव्यक्तियाँ, उनके कथोपकथन का विमर्श भी किया गया है। श्रृंगार, अलंकरण, लावण्य व कुलीनता से संवलित स्त्री यौवन, प्रेम और काम की यह कथा, स्त्री मन की गरिमामय अभिव्यंजना करती है। काम के दैहिक, दैविक और आध्यात्मिक पक्ष को निरूपित किया गया है। कथानक, शब्द चित्र, श्राप, पश्चाताप तथा विलाप जैसी घटनायें भी विमर्श में शामिल हैं। इन सभी अंतः साक्ष्यों में विद्योत्तमा के मूलार्थ, शब्दार्थ व भावार्थ सन्निहित हैं। व्यापक अन्वेषण विस्मित करने वाला है और विद्योत्तमा की उपस्थिति लक्षित करता है।
सात ग्रंथों की नायिकाएं व सहनायिकायेंः मालविका जैसी स्त्रियाँ अपने यौवन एवं ललित कलाओं में कुशलता से अपने प्रिय को रिझा कर ही अपना स्थान सुरक्षित करती हैं। स्त्री मंत्रणा जैसी धरणी पंडिता कौशिकी से लेती है। यद्यपि रघुवंशम् में राजाओं की कथा है, वहाँ भी सुदक्षिणा, सीता, इन्दुमति द्वारा स्वयंवर के माध्यम से पति के चयन की स्वतंत्रता विवेकशीलता की पुष्टि करती है। मेघदूतम् में यक्षिणी का विरह, कुमारसंभवम् में रति का विलाप, आदि पति के बिना स्त्री की मनः दशा को व्यक्त करते हैं। बदलते हुऐ समाज के ये चिह्न स्त्रियों के अधिकार बदलने के संकेत देते हैं। रघुवंशम् में अग्निवर्ण की गर्भवती स्त्री का राज्यारोहण तथा अभिज्ञान शाकुंतलम् में दुष्यंत के द्वारा नदी में खोई हुई अंगूठी को पाने के बाद पति द्वारा अपनी स्त्री को अधिकार देना इसके स्पष्ट उदाहरण हैं।
कुमारसंभवम् में विमुग्ध कर देने वाली सहजता और सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति पार्वती की तपस्या, तथा रति का कामदेव के प्रति समर्पण, मेघदूतम् में यक्षी का आकर्षण, रघुवंशम् में कामधेनु का श्राप तथा रानी सुदक्षिणा की सहधर्मिता, स्वयंवर में रानी इंदुमति का विवेक पूर्ण अपने वर का चयन तथा परित्याग होने पर देवी सीता का आक्रोश, अभिज्ञान शाकुन्तलम् में आश्रम कन्या शकुन्तला का गंधर्व विवाह, पति दुष्यंत के द्वारा भरे राजदरबार में श्रापवश अपनी स्त्री शकुंतला का तिरस्कार, शकुन्तला द्वारा दुष्यंत की कड़े शब्दों में भर्त्सना एवं अन्ततः सर्वदमन का लालन पालन; मालविकाग्निमित्रम् में राजकमारी मालविका का ललित कलाओं द्वारा अग्निमित्र को आकर्षित करना, रानी धारिणी की अंतः पुर की कूटनीति, पंडिता कौशिकी की मंत्रणाएं और संतानहीन बाँझ इरावती की वेदना; विक्रमोवशर्शीयम् में अप्सरा कन्या उर्वशी का सौंदर्य एवं विजय के प्रसंग में उसकी प्रेम लीला और अंततः श्रापवश उसका अप्सरा लोक को वापस लौटना महत्वपूर्ण प्रसंग हैं। इन सभी नायिकाओं के साथ दैववश श्राप और वरदान जुड़ा हुआ है। दैवीय शक्ति इन्हें सजीव एवं सशक्त करती है।
काशी के राजा शारदानंद की विदुषी राजकन्या विद्योत्तमा विद्या और वैभव के साथ बड़ी हुई थी और वह भी शिव और पार्वती की नगरी काशी में, जो सात ग्रंथों के मंगलाचरण में विराजमान है। काशी का शाब्दिक अर्थ लोक और शास्त्र को प्रकाशित करने वाला होता है जो आज के स्त्रीत्व के साथ भी संबद्ध है। काशी विश्वनाथ की उपस्थिति, आस्था और विश्वास के माध्यम से लोक और लोकोत्तर का विलक्षण धाम है जो क्षुद्रता से उबारकर विशालता का अंग बना देती है।
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