अपने प्रथम काव्य ग्रन्थ सीता विछोह के प्रकाशन के बाद से ही इच्छा थी कि महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी की पत्नी रत्नावली पर कुछ लिखूँ। किन्तु, रत्नावली के जीवन-चरित के बिखरे तन्तुओं को एकत्रित करना एक दुरूह कार्य था और राजकीय सेवा में रहते हुए कार्य-व्यस्तता के कारण मेरे लिए यह संभव भी नहीं था।
हिन्दी काव्य जगत के सिरमौर निःसंदेह गोस्वामी तुलसीदास जी ही हैं। किन्तु इस जाज्वल्यमान किरीट में कभी एक अतीव सुन्दर रत्न भी जड़ा हुआ था, जो कालान्तर में इससे पृथक-परित्यक्त ही रहा। यह रत्न थी उनकी पाणिग्रहीता पत्नी रत्नावली!
रत्नावली से आम हिन्दी पाठक बस इतना ही परिचित है कि वे गोस्वामी जी की धर्मपत्नी थीं, यौवन के दिनों में गोस्वामी जी उनमें अत्यधिक आसक्त थे और उनके फटकार पूर्ण निम्न दोहों के कारण गोस्वामी जी ने वैराग्य ले लिया
"लाज न लागत आप को, दौरे आएहु साथ,
धिक-धिक ऐसे प्रेम को, कहा कहीं मैं नाथ!
अस्थि-चर्ममय देह मम, तामें जैसी प्रीति;
तैसी जो श्री राम महें, होति न तब भव-भीति।"
एक अन्य दोहा भी रत्नावली रचित कहा जाता है (जो गोस्वामी जी की कृति 'दोहावली में संकलित भी है), जिरो परित्यक्ता होने के काफी पश्चात् कभी अकस्मात भेंट हो जाने पर उन्होंने गोस्वामी जी से कहा था-
"खरिया खरी कपूर लौ उचित न पिय तिय-त्यागः
कै खरिया मोहि मेलि कै अचल करहु अनुराग ।"
इसके अतिरिक्त कहा जाता है कि रत्नावली के निम्न दोहे -
"कटि की खीनी, कनक सी रहत सखिन सँग सोय, मोहि कटे की डर नहीं, अनत कटे डर होय।"
के उत्तर में गोस्वामी जी ने निम्न दोहा कहा था-
"कटे एक रघुनाथ सँग बाँधि जटा सिर केस,
हम तो चाखा प्रेम-रस पतिनी के उपदेस।"
परम्परा से प्राप्त उपर्युक्त दोहों से यह आभास तो हो ही जाता है कि महाकवि की पत्नी भी विदुषी और कवियित्री थीं। फिर भी, रत्नावली को हिन्दी-जगत ने प्रायः उपेक्षित ही रखा। किन्तु, संतोष की बात है कि हिन्दी साहित्य के कुछ अग्रणी साहित्यकारों ने अपनी कृतियों में उन्हें न्यूनाधिक याद किया है, यथा- श्री मैथिलीशरण गुप्त ने रत्नावली में, डॉ. रांगेय राघव ने रत्ना की बात में, श्री अमृत लाल नागर ने 'मानस का हंस में, आदि।
यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि वस्तुत रत्नावली की प्रामाणिक एवं सर्वमान्य जीवनी जैसी कोई चीज है ही नहीं, किन्तु, इतना तो कहा ही जा सकता है कि हिन्दी-जगत को तुलसीदास जी जैसा महान कवि देने का श्रेय रत्नावली को ही है। श्री मैथिलीशरण गुप्त जी ने भी अपनी कृति रत्नावली के निवेदन में कुछ ऐसे ही विचार व्यक्त किए हैं।
दुख की बात है कि गोस्वामी तुलसीदास जी का भी प्रामाणिक जीवन-चरित प्राय अनुपलब्ध ही है। पूर्व-काल में, हमारे देश के महापुरुषों-विद्वानों में अपना जीवन-चरित इगित करने की परम्परा नहीं रही है, फलस्वरूप, इन महापुरुषों के सम्बन्ध में एक तरफ तो किंवदन्तियों की भरमार है, तो दूसरी तरफ बहुत से विद्याविलासी-सज्जन इन्हें येन-केन-प्रकारेण अपने स्वयं के निवास क्षेत्र से सम्बन्धित सिद्ध करने का प्रयास करते हैं।
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