मैं भारतवर्ष की उत्तर दिशा में स्थित, उदारता एवं वीरता के कारण महान् प्रान्त, पंजाब के एक भाग-रूप द्वाये के, छोटे से गाँव "सतनौर" (होशियारपुर) का निवासी हूँ। पूर्वजन्म के पुण्यों तथा शुभ संस्कारों के कारण मुझे इस पावन भूमि पर जन्म मिला है। मेरे जीवन में इस पंजाब की स्वाणल मिट्टी का एक-एक कण व्याप्त है। में यहां के सरोवरों, जौहड़ों और गढ़ों में नहाता एवं इनके कीचड़ में लथपथ लोटता रहा हूँ तथा यहां की इवहली चाँदनियों का, "टीःलो" खेलते हुए अपनी आंखों से झाकण्ठ पान करता रहा हूँ। यहां के टीलों-टिब्बों, बारा-बंजरों, खेत-खलिहानों, तथा तृणहरित प्रदेशों में रोड़-पत्थरों से ठोकरें खाते, झाड़-झंखाड़ों से उलझते, फील कांटों से छिलते हुए तथा तृप्ति-पर्यम्त, खुली प्रभातकालीन सुकुमार एवं सौरभ-सम्पन्न सौम्य समीर के घूंट भरते हुए, मैं प्राची दिशा की हजारों पहली मुस्कानों का आनन्द लूटता रहा हूँ। यहाँ के स्वादु तथा शीतल जल, खटमीठे फल, सघन दूध-वही; तथा छाछ से भरे कलेवे के कटोरे और गगरियों से तत्काल निकाले गये नवनीत-पिण्ड, चिरकाल से मेरी भूख-प्यास को शान्त करते आ रहे हैं। शिवालक की पीठ पर; भोर के समय चढ़ते हुए अभिनव शुचि सूर्य की रश्मिमाला को, लेटे-लेटे चादर से मुंह निकाल कर, मैं "झा" कहता रहा हूँ। यहाँ के सघन श्यामल बादलों की पोठ पर चोट मारने वाली बिजली के चाबुक की गड़गड़ाहट, मुग्ध तरुणियों की मधु-मब-भरी सोठनियां, अलगोजों की सुरीली तानों में घुली हुई जादूभरी "हीर-रांझों" की मस्तियां, मेरे कानों में शहद की नालें भर-भर कर उडेलती रही हैं। यहां की बसुन्धरा की गोद में बैठकर मैंने दिव्य झानन्द की अनुभूति पाई है। यहाँ ही पूज्य गुरुओं के धन्तःकरण से स्वतः प्रस्फुटित ज्ञान का श्रालोक, हृदय के साथ मेरी आत्मा को भी परम उल्लास से आप्लावित करता रहा है। यहीं वशमेश पिता श्री गुरुगोविन्दसिंह जी महाराज के परिवार के बलिदानों की घटनाएँ, एक तरफ तो मेरी आंखों को अक्षुओं से डबडबाई करती रही हैं, तथा दूसरी ओर उत्साह एवं बीरता के संचार से रोमांचित करती हुई मेरी धमनियों के रुधिर को झंझोड़ कर फरफराहट युक्त करती रही हैं। सारांश वह, कि यहां की भूमि मेरे लिए प्रेरणाओं, अनुभूतियों एवं संकल्प-विकल्पों का स्थायी स्रोत रही है।
जन्म प्राप्त करने के पश्चात् चेतना आने पर जो शब्द सर्वप्रथम मेरे कानों में प्रविष्ट हुए वे पंजावी-भाषा के ही थे। मेरी पूज्य-माता इसी भावा में लोरियां देकर सिसकते रोते मुझको थपथपा कर सुलाया करती थी। कुछ बड़ा होने पर, मेरी स्नेहमयी वादी मुझे इसी भाषा में राजा "रसालू" की कथाएँ सुनाती तथा बुझारतें पूछती थीं। मैं उन्हें सुनता रहता तथा "हूँ" करता रहता। ऐसे करते ही मुझे निहा था घेरती और मेरी चाह अधूरी ही रह जाती। में इसी भाषा में "पूर्ण-अगत" "सरसी-पुग्नूं", "मिरजा-साहिबों" प्रावि के किस्से सुनता रहा हूँ। इसी भाषा में मैंने डांट-डपट एवं गालियाँ खाई खिलाई, व्यंग्य-वचनों तथा तानों से भरे गंवार मारियों के वार-विवाद एवं कलह देखे सुने, और शादी के समय के "छन्द-परागों" का आस्वाद चखा है। इस प्रकार पंजाबी भाषा के प्रति मेरी अगाध श्रद्धा तया भासक्ति का होता स्वाभाविक है।
दर्शन पुराण एवं पाली; प्राकृत; इस भाषा के प्रत्येक अंश की खोज-बोन सर्वजनगम्य बनाया जाय। इसके साथ-चिरकाल से मेरी यह उत्कट लालसा थी कि में मातृभाषा पंजाबी की कुछ सेवा कर जन्मभूमि के ऋण से मुक्त होने के साथ-साथ जीवन सफल करूँ। मेरी यह भी हार्दिक अभिलाषा है कि इस ग्रन्थ के प्रकाश में आने के पश्चात् इस भाषा की वर्णमाला; ध्वनि, उपसर्ग; प्रत्यय; क्रिया, शब्द, अर्थ तथा वाक्य-रचना आदि विषयों को लेकर क्रमिक विकास के प्राधार पर वैज्ञानिक विधि से पृथक् पृथक् प्रबन्ध-रचना की जाय और ऐतिहासिक कम से एक एक शब्ब के झादि से लेकर अन्त तक विविध रूपों का विकास विखाया जाय। वैदिक साहित्य अपभ्रंश आदि के ग्रन्थों का सहारा लेकर करके इसकी गरिमा को प्रकाश में लाते हुए, साथ संस्कृत-पाठक छात्रों के लिए ऐसी पुस्तकें बनाई जायें; जिनमें संस्कृत के ऐसे शब्दों तथा वाक्यों का प्रयोग किया जाय जो पंजाबी भाषा के शब्दों तथा वाक्यों के समान हों या उनसे मिलते-जुलते हों। इसके अतिरिक्त पंजाबी तथा संस्कृत की समानता दिखाने वाला अथवा इनका तुलनात्मक अध्ययन करने वाला एक व्याकरण भी तय्यार किया जाय। इन ग्रन्थों का परिशीलन कर पंजाबी का विद्यार्थी संस्कृत भाषा को पंजाबी-भाषा से दूर नहीं मानेगा। इस व्यापार से दोनों भाषाओं को "नौका-गन्त्री-न्याय" से परस्पर शक्ति तथा सहायता मिलेगी। इस से उन लोगों की भी सन्तुष्टि हो जायगी, जो ज्ञान को अपूर्णता एवं अपरिपक्वता के कारण यह बेतुका डिण्डोरा पीटते फिरते हैं कि पंजाबी भाषा का संस्कृत के साथ कोई सम्बन्ध नहीं।
हमारा यह वृढ़ निश्चय है कि "पंजाबी" उसी भू-प्रदेश की भाषा है जहां ऋषियों द्वारा उच्चारण किये गये पवित्र वेदमन्त्र आकाश में गूंजते रहे हैं, और वह प्रदेश शतगु आबि नदियों के झास पास का विस्तृत भूभाग हमारे वाला ही है। यहां ही पाणिनि मुनि जैसे महाव्याकरण तथा अन्य विषयों के धुरश्धर विद्वान् हुए हैं, जिनकी बुद्धि को प्रखरता की थाह संसार के विद्वान् अाज तक नहीं पा सके। इसी लिए मेरी यह धारणा है कि वेदों वाली भाषा ही पंजाब के निवासी जनसाधारण की माया रह चुकी है।
पंजाबी भाषा श्रनादिकाल से बह रहा एक विशाल एवं पवित्र गङ्गा-प्रवाह है। इसमें छोटे-मोटे नदी-नालों की भांति इधर-उधर से प्राकर बहुत नहीं तो गिने-जुने शब्द तथा धन्य तत्त्व वा मिले हैं। इस आकर्षक एवं रमणीय वसुधा सप्तसिन्धु के बीच, विशेषतया हमारे प्रवेश द्वावे की शुतुद्री (सतलुज) तथा विपाश् (व्यास) नदियों के ग्रासपास घूमते फिरते, धानम्व लूटते हुए, यहाँ के कण-कण को पवित्र करने वाले ऋषि वसिष्ठ तथा विश्वामित्त ने इसी भूमि की भावा में "प्र पर्वतानामुराती विपात् शुतुद्री पयसा जयेते (ऋग्वेद ३०, ३३ सू०) इत्यादि मन्त्रों द्वारा नवियों के सम्मुख प्रार्थना की थी। यही नहीं, संसार भर में सबसे पवित्र महिमशाली मन्त्र "गायत्री" यहां की ही भाषा में, यहां के ही ऋषि विश्वामित्र के ग्रन्तःकरण में प्रस्फुटित हुश्झा था। उन्हीं पूर्वजों की भाषा का प्रवाह आज तक उसी तरह अविच्छिन्न चला था रहा है। इसमें वातावरण के बदलने के कारण समय-समय पर परिवर्तन होते रहे हैं। इसी भाषा का नाम हमारे उन पूर्वजों ने तो कुछ नहीं रखा था परन्तु बाव में होने वाले कुछ लोगों ने अपना पाण्डित्य प्रकट करने के लिए गङ्गा के स्थान-स्थान में बदलने वाले नाम - भागीरथी, सुरसरी आदि की भान्ति ही इस भाषा के वैविक, संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश प्रावि नाम रख लिए हैं। बस्तु, उस प्राचीन समय में वही भाषा जिसे हम थाज वैदिक या संस्कृत कहते हैं पंजाब की ही भाषा; अर्थात् उस समय की पंजाबी ही बी; घोर प्राधुनिक पंजाबी उसी का विकसित रूप है। उस पुरानी भाषा, जो मागे चलकर "संस्कृत" कहाई, के नाम के साथ यदि कोई सहमत नहीं, तो बह दूसरी बात है। परन्तु, तथ्य यही है।
जिस तरह एक सपाट श्वेत वस्त्र पर कोई ग्राकर नीले धागे से दो-चार बेल-बूटे, फूल-पत्ती आदि की कढ़ाई कर आए और उसके पश्चात् कोई और बाकर अपने लाल रंग के बेल-बूटे द्यादि की कढ़ाई कर जाए, परन्तु उसकी आधारभूत तह-जमीन वही श्वेत वस्त्र होती है। इसी तरह पंजाबी भाषा में चाहे यूनानी, अरबी, फ़ारसी, पुर्तगाली तथा अंग्रेजो आदि के शब्द तथा अन्य तत्त्व आ मिले हैं, पर उनका स्थान उपर्युक्त कथन की भान्ति जुदा सा ही रहता है।
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