प्रतिद्ध पाश्चात्य दार्शनिक होगल ने कहा है मनुष्य शरीर और आत्मा का समुच्चय है। (Man is body plus ghost) अर्थात् वह स्थूल शरीर और सूक्ष्म आत्मा का संयोग । मनुष्य का शरीर भी पशुओं की तरह ही अपनी शारी-रिक आवश्यकताओं को चाहता है। वे आवश्यकताएँ पाशविक आवश्यकताएँ हैं। स्थूल होने के कारण अधिक सचल होती हैं, और उनकी ओर अर्थात् उन्हें तृप्त करने की ओर अधिक ध्यान दिया जाता है। आत्मा की भी कुछ आवश्यकताएँ हैं। जैसे शरीर को बढ़ने और पुष्ट रहने के लिए कुछ चीजों की आवश्यकता है, वैसे ही आत्मा को सक्रिय और विकसित रहने के लिए भी कुछ चीजों की आवश्यकता है। शरीर की आवश्यकताएँ पाशविक और आत्मा की आवश्यकताएँ आध्यात्मिक हैं। साहित्य भी इन दोनों के विकास या ह्रास में सहायक होता है। उद्दाम श्रृंगार का साहित्य हमारी पाशविकता को उत्तेजित करता है। इसके विपरीत शान्त रस का साहित्य हमारी आत्मा को विकसित होने में सहायक होता है। जो साहित्य हमारी पाशविकता को उत्तेजित करे, वह अशिव साहित्य है। महात्मा और महापुरुष हमारे सामने उच्च आदर्श रखते हैं। उनके जीवन से हमें आध्यात्मिक विकास की प्रेरणा मिलती तथा उच्च आदर्शों का ज्ञान होता है। इसीलिए महाभारत में महर्षि वेदव्यास ने लिखा है:
पुराणमितिहासश्च तथाख्यानानि यानि च ।
महात्मनां च चरितं श्रोतथ्यं नित्यमेव च ॥
इससे मनुष्य के जीवन को उच्च और कल्याणकर बनाने के लिए महात्माओं के चरित्रों का नित्य पठन-पाठन करने का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है।
साहित्य में काव्य ऐसी विधा है, जो मनुष्य के लिए सहज हृदयग्रा ही है। इसीलिए तुलसीदास की रामायण ने भगवान् राम के पावन चरित्र को जन-जन तक पहुँचाया और कितने ही लोग उसका नित्य या बहुधा पारायण करते हैं।
इस युग में महात्मा गांधी ऐसे महापुरुप हुए हैं, जिनका पावन जीवन हमारे लिए युगानुकूल व्यावहारिक उच्च आदर्श उपस्थित करता है और हमें नैतिक और सात्त्विक जीवन-यापन की प्रेरणा देता है। उन्होंने स्वयं अपना जीवन-वृत्तान्त लिखा । कितनों ही ने उनके जीवन पर अनेक छोटे-बड़े ग्रन्थ लिखे । किन्तु वे समाज के उच्च स्तर के शिक्षित लोगों तक ही पहुँच सके। जनता में उनकी पहुँच नहीं हुई ।
किन्तु महात्मा गांधी का पाचन और प्रेरणादायक जीवन वास्तव में जनता के हित और कल्याण के लिए था। उसे जनता तक पहुँचाने के लिए आवश्यक था कि वह काव्य के रूप में लिखा जाय, किन्तु वह काव्य जनता-सुलभ भाषा में हो । रामायण की सफलता और व्यापक प्रचार का मुख्य कारण यह है कि वह ऐसी भाषा में लिखी गयी है कि जनता उसे समझ लेती है। महात्माजी के प्रेरणादायक जीवन-वृत्त को जनता तक पहुँचाने के लिए उसे ऐसी भाषा के काव्य में लिखने की आवश्यकता थी, जो जनता की समझ में सरलता से आ जाय ।
मुझे प्रसन्नता है कि यह पुनीत और आवश्यक कार्य पं० रामप्रवेश शास्त्री ने करने का संकल्प किया। अपने वृहद् काव्य 'सत्यपथ' या 'मोहन-कथा' में उन्होंने बड़ी सफलतापूर्वक अपने संकल्प को मूर्त रूप दिया है। 'सत्यपथ' की अपेक्षा उसका वैकल्पिक नाम 'मोहन-कथा' मुझे अधिक अच्छा लगता है, क्योंकि वह सरल ही नहीं है, वह 'रामायण' की तरह 'मोहनदास' के चरित्र होने को विज्ञापित भी करता है।
मैंने इसके दो आरम्भिक खण्ड पूरी तरह से पढ़े और सुने। अन्य खण्डों के कुछ अंश देखे । इस काव्य की सबसे बड़ी विशेषता इसकी भाषा है, जो ऐसी सरल है कि जनता को सहज ही ग्राह्य है। शास्त्रीजी ने इस काव्य के द्वारा यह प्रमाणित कर दिया है कि महात्मा गांधी ऐसे महापुरुष का बहुमुखी जीवन भी, और वह भी कविता में, कितनी सरल भाषा में लिखा जा सकता है।
'सत्यपथ' में महात्माजी के उत्तरार्द्ध जीवन की गौरव गाथा नहीं आ पायी थी। स्वतंत्रता के ठीक पहले विभाजन और स्वतंत्रता के बाद का उनका कार्य बहुत संघर्षकाल के कार्य से भी अधिक महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि इस काल में उन्हें विदेशी शक्ति से संघर्ष में सत्य और अहिंसा को प्रतिष्ठित न करके अपने ही देश की पैशा चिक शक्तियों और प्रवृत्तियों से सत्य और अहिंसा के शस्त्र से जूझना था। इस युग में इस देश में मानो नियति यह बतलाना चाहती थी कि जब मानव सत्य और अहिंसा के पथ से विमुख हो जाता है तब उसकी पाशविक और पैशाचिक प्रवृत्तियाँ कितना भयंकर रूप ले लेती हैं और वे मानवता के लिए कितनी अशिव और कितनी संहारक हैं। देश ही नहीं, स्वयं महात्माजी के लिए वह अत्यन्त कठिन संकट का समय था, क्योंकि महात्माजी के सारे जीवन के सिद्धान्तों की परीक्षा हो रही थी । तुलसीदास ने कहा है- 'आपतिकाल परखिये चारी, बोरण धर्म मित्र अरु मारी।' अतएव वह समय उनके जीवन की कठिनतम परीक्षा थी, किन्तु वे महात्मा थे। उन्होंने न समस्याओं से समझौता किया, और न पलायन किया, वे अपने सिद्धान्त पर अडिग रहे। वे उस पर इतने दृढ़ थे कि अपने सिद्धान्त पर अपने प्राण भी उत्सर्ग कर दिये। मैं महात्माजी के जीवन के इस अंश को उनके जीवन का सबसे कठिन, सबसे जटिल और सबसे महत्त्वपूर्ण मानता हूँ।
शास्त्रोत्री'ने 'सत्यपथ' में उनके जीवन और संघर्ष का पूर्वाद्धं चित्रित किया । उसका चित्रण करना अपेक्षतया तरल था- किन्तु अपेक्षतया ही, क्योंकि जिस सरल और रोचक शैली में वह किया गया है वह वास्तव में बड़ा कठिन कार्य है। किन्तु महात्माजी के जीवन के उत्तराद्धं का सरल भाषा और रोचक शैली में चित्रित करना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। मुझे यह देखकर साश्वर्य प्रसन्नता हुईं कि सत्याग्रह-गाथा में शास्त्रीजी उसके वित्रण में भलीभाँति सफल हुए और यह काव्य इतने सुन्दर ढंग से प्रणीत हुआ ।
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