कृष्ण-भक्ति-रस का रसास्वादन करने में आजीवन तत्पर बने हुए सन्त महामना पूज्य बालकृष्ण जी महाराज से कौन वृन्दावनवासी परिचित न होगा। ई० सन् १९९६ में उनके गोलोक में जाने पर उनकी पुण्य-स्मृति में उनके भक्त लोगों ने 'रसार्चन' नामक पुस्तक की रचना की। इस पुस्तक को देखकर मन अति प्रभावित हुआ। हमारी आदरणीय गुरु बहिन सुश्री कमला जी बावा का मन इस पुस्तक को देखकर अति हर्षित हुआ। फल यह हुआ उनके मन में अपने गुरुदेव श्री ईश्वर-स्वरूप जी महाराज, स्वामी लक्ष्मण जी के प्रति भी इसी प्रकार का ग्रन्थ प्रकाशित करने का संस्कार अंकुरित हुआ। उन्होंने अपने मन का शुभ-संकल्प अपने आराध्यदेव परलोकवासी गुरु महाराज के चरणों में समर्पित किया। गुरुदेव आशुतोष तो थे ही, उन्होंने इस संकल्प को फलित बनने की स्वतः सुविधा प्रदान की। श्री लाल जी चढ्ढ़ा जो श्रीईश्वर स्वरूप जी महाराज के परम स्नेह के पात्र है, कमला जी ने यह शुभ कार्य उनके हाथ में सौंपा। सौभाग्वश मै श्रीनगर से दिल्ली दिसम्बर के मास में आई। लाल जी ने मुझ तक यह शुभ बात पहुँचाई। गुरु-कृपा से मैंने अपनी ओर से तो सभी गुरु भाइयों और गुरु-बहनों से इस कार्य में योग-दान देने के लिए कहा, किंतु कइयों ने तो बात हंस के टाल दी, पर गुरु-शक्तिपात से आघ्रात कई भक्तों ने, अपने मानसिक उद्गार जो उनका गुरुवर्यों के प्रति था, उन का बड़े परिश्रम, भक्ति तथा अनन्य स्नेह में विभोर होकर हम तक लिखकर पहुँचाया। इस का मुख्य कारण यह भी था कि अपनी जन्म भूमि से मूलतः वियुक्त होकर गुरुदेव की शीतल छाया से भी वंचित हो जाने से इनका हृदय छलनी हो चुका था, इसी हेतु अपने हृदय की मरहम-पट्टी करने का सुअवसर देखकर इन महानुभावों ने जो कुछ भी अपने गुरुवर्य के प्रति लिखा, उसके लिए कमला जी व हम सब उनके आभारी हैं।
इसके अतिरिक्त वृन्दावनवासियों ने भी गुरुवर्य के प्रति श्रद्धाजंलियाँ समर्पित की है। श्री स्वामी ईश्वर-स्वरूप जी महाराज का व्यक्तित्व अपनापन लिये था। बचपन से ही भगवान शंकर में अनन्य प्रीति रखने वाले योगीराज गुरुवर्यं के प्रति जितना कहें कम है। जिन महानुभावों ने उनके दर्शन किये हैं, वे स्वयं उनकी महानता का मूल्यांकन कर सकते है। हम अकिंचन अधिक क्या कह सकते है। उनकी पावन स्मृति बनी रहे, इसी लक्ष्य से यह पुस्तक आप के हाथों में आ रही है।
सन्त श्री बालकृष्ण जी महाराज हमारे गुरु प्रवर ईश्वर-स्वरूप जी (लक्ष्मण जी महाराज के परम मित्र और सुहृदृ थे। एक ने अपने इष्ट-देव भगवान् कृष्ण की जन्म भूमि वृन्दावन में रहकर काल-यापन किया और दूसरे सन्तवर्य ने भगवान् शंकर के निजी निवासस्थान कश्मीर के श्रीनगर में अवस्थित ईश्वर-पर्वत के दामन में आजीवन रहकर अपने राज-योग से इस धरा-धाम को पवित्र किया था। दोनों महान विभूतियों की स्मृति बनी रहे। इसी प्रयोजन से इस पुस्तक का निर्माण हुआ है।
इसके अतिरिक्त श्री लाल जी चढ्ढ़ा ने इस ग्रन्थ में स्वामी जी महाराज के कई भावों से खचित चित्रों को देकर बहुत ही प्रशंसनीय काम किया है। इतना ही नहीं स्वामी जी महाराज की प्रधान शिष्या सुश्री शारिका देवी जी जिनका स्वर्गारोहण अपने गुरुदेव से पूर्व छः मास, फाल्गुन कृष्णपक्ष तृतीया को हुआ था, उनके मनोमोहक चित्रों को भी इस ग्रन्थ में स्थान दिया है। देवी जी, बाल-ब्रह्मचारिणी, तपस्वी गुरु-सेवा में रत, त्याग और सहन शक्ति की प्रत्यक्ष साकार मूर्ति थी। कश्मीर की प्रायः सभी जनता उनका दर्शन करके अपने आपको कृत-कृत्य समझती थी। वृन्दावनवासी महाराज जी के शिष्य भी उनका हृदय से आदर करते थे। उनके विषय में भी कई महानुभावकों ने उनके जीवन में घटित घटनाओं का उल्लेख इस ग्रन्थ में किया है। उन सज्जनों के प्रति हम हृदय से आभार प्रकट कर रहे है।
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