श्रीमद्भगवद गीता – जीवन दर्शन | Srimad Bhagavad Gita Jeevan Darshan

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श्रीमद्भगवद गीता – जीवन दर्शन

महिमा :

हिन्दू धर्म के तीन महाकाव्य हैं - श्रीमद्भगवद गीता, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र। शेष दो का महत्व गीता में ही समाया हुआ है। इसलिए गीता को एक्सप्रेसवे (राजमार्ग- expressway) कहा जा सकता है और बाकी शास्त्रों को सिर्फ सड़क कहा जा सकता है। स्वयं भगवान कृष्ण द्वारा बोले जाने वाले सम्वाद होने के कारण, यह मंत्र और साथ ही साथ श्रद्धा- सूत्र भी हैं ।

क्या कोई कल्पना भी कर सकता है कि लगभग 5100 साल पहले, कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत युद्ध लड़ने के लिए तैयार दोनों सेनाओं के लाखों सैनिकों के बीच, सर्वशक्तिमान भगवान श्री कृष्ण के मुख से निकली यह दिव्य, अलौकिक वाणी है जो अर्जुन को सुनाई गई थी।  सबसे रहस्यमय, विचित्र और अकल्पनीय !!

श्रीमदभगवदगीता उपनिषदों का सार है। गीता में भगवान ने अर्जुन को अपना समग्र रूप दिखाया है। किसी की भी उपासना करें ,सम्पूर्ण उपासनाएँ समग्ररूप में ही आ जाती है। गीता का यही भाव है। गीता ‘ सब कुछ परमात्मा है ’- ऐसा मानती है और इसी को महत्व देती है। भगवान ने कहा भी है –

'सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः ' ( गीता १५/१५ ),  ' मैं ही सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में रहता हूँ'।

जिस हृदय में भगवान  रहते हैं उसी में राग-द्वेष  और अशांति  भी रहती है । राग-द्वेष मिटा दें तो परमात्मा प्रकट हो जायेंगे।

 

Srimad Bhagavad Gita

विषेशताएँ :

भारतीय संस्कृति या हिंदू धर्म में ' ग ' शब्द से शुरू होने वाले पांच (5) सबसे महत्वपूर्ण पवित्र प्रयोग , आचरण हैं - गीता, गौ (गाय), गुरु, गंगा और गायत्री। गीता स्वयं भगवान कृष्ण की वाणी होने के कारण सर्वोपरि मानी जाती है। यह गीता गाय के समान है, जिससे स्वयं कृष्ण दूध पिला रहे हैं - अर्जुन एक बछड़ा है, सुनने वाला और भक्त गीता के दूध का अमृत पीने जा रहे हैं।

ईश्वर हर स्थिति में समान रूप से मौजूद है। इसका सही उपयोग करने से व्यक्ति का कल्याण निश्चित है। वह दिव्य प्राप्ति को प्राप्त करता है और समानता या समता (समता) और कल्याण प्राप्त करता है।

समता योग:

☸ मनुष्य को सभी प्रकार के राग-द्वेष , प्रसिद्धि-बदनामी, सफलता-असफलता, सुख-दर्द को भगवान की इच्छा या भाग्य के रूप में स्वीकार करना चाहिए। हमें अनुकूल और प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों को समान रूप से स्वीकार करना सीखना चाहिए। गीता में ऐसी समता को 'समता योग ' कहा गया है।

☸ प्रतिकूल स्थिति के दौरान 'खुशी की इच्छा ' का त्याग करना और

☸ ‘सुख के लिए' और ' इस सुख की स्थिति को बनाए रखने के लिए '--इन दोहरी इच्छाओं को त्यागें ; इसके बजाय इसे 'अनुकूल स्थिति होने पर दूसरों की सेवा ‘ में रखें’।

पुनर्जन्म :

☸ प्रत्येक जीव में ईश्वर का ही एक अंश "आत्मा" है।

☸ लेकिन इस प्राणी ने अपने क्षणिक भौतिक सुखों के लिए इस संसार को नष्ट करने वाले नाशवान प्राकृतिक पदार्थों के साथ अपना झूठा संबंध को स्वीकार कर लिया,

☸ जिससे वह जन्म और मृत्यु के दुष्चक्र में पड़ जाता है, और ईश्वर से विमुख हो जाता है।

☸ इसी प्रकार यदि यह जीव इन पदार्थों से स्वयं को पृथक कर लेता है, ईश्वर के साथ शाश्वत संबंध को पहचान लेता है, तो वह इस जन्म और मृत्यु के महान दुख से हमेशा के लिए छूट जाएगा।

☸ इस शरीर को त्यागने और उसी दुनिया में दूसरे शरीर में पुनर्जन्म भी सुव्यवस्थित है।

“वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि | 
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही “ ||2-- 22||

 मनुष्य की मृत्यु तभी होती है जब यह निर्धारित हो जाता है कि उसे अगले जन्म में किस प्रकार का शरीर प्राप्त होगा।

गीता ज्ञान या उपदेश:

 गीता के उपदेश बहुत ही उच्च कोटि के हैं, उच्चतम ज्ञान, भक्ति और निस्वार्थ भावना से भरे हुए हैं।

  गीता सिर्फ एक तरफा प्रवचन नहीं है। यह कृष्ण और अर्जुन के संवादों का एक संग्रह है।


Lord Krishna Shows Vishwarupa to Arjun in The Gita | Traditional Colors With 24K Gold

  गीता का सौंदर्य ही अर्जुन द्वारा पूछे गए प्रश्नों और कृष्ण द्वारा दिए गए उत्तरों के मेल में है।

  गीता में अर्जुन एक छात्र के रूप में गुरु कृष्ण से सीखता है और बिना किसी वाद -विवाद और भेद के सभी शिक्षाओं को स्वीकार करता है।

  आधुनिक विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि वैदिक ज्ञान सभी दोषों -त्रुटियों से मुक्त और अत्याधुनिक है।

  इसलिए हमें भगवदगीता को भी वैसे ही स्वीकार करना चाहिए जैसे वह है, बिना किसी टिप्पणी के- बिना घटाए या बढ़ाए, बिना विरोध-प्रतिवाद के और विषय वस्तु में बिना किसी कल्पना के।

  वर्तमान युग में, लोगों के पास इतना समय नहीं है कि वे सभी वैदिक साहित्य का अध्ययन कर सकें, और इसकी आवश्यकता भी नहीं है। इसलिए इसकी शिक्षाओं को ध्यान से सुनना, पढ़ना, मनन और धारण करना चाहिए। अन्य शास्त्रों के संग्रह की क्या आवश्यकता है? जैसा कि वेदव्यास जी महाराज ने ठीक ही कहा है -

"गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै : शास्त्रसंग्रहै ।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि: स्रता । । (महा। भीष्म। 43/1)

गीता केवल हिंदुओं के लिए ही नहीं बल्कि अन्य धर्मों और विश्वासों को मानने वालों के लिए भी आनंद और कल्याण का मार्ग है।

योग मार्ग:

गीता तीन योग मार्गों का वर्णन करती है - कर्म, ज्ञान और भक्ति योग।

1. कर्म योग:

 स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों का संसार से अभिन्न संबंध है।

  तीनों को निस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा में लगाओ - यही कर्म योग है।


कर्मयोग का तत्व: The Element of Karma Yoga (Part II)

2. ज्ञान योग:

  अपने वास्तविक रूप को जानना है - जानने की शक्ति (ज्ञान) - यह ज्ञान योग है।


गीता में ज्ञान योग : Gita Me Gyan Yog

3. भक्ति योग:

  भगवान को समर्पण - ईश्वर पर विश्वास करना - आज्ञा मानने और समर्पित करने की शक्ति- यही भक्ति योग है।


The Nectar of Devotion (The Complete Science of Bhakti - Yoga)

गीता – सार :

सारी  उपनिषदों का निचोड़ श्रीमद्भगवद्गीता के 18 अध्यायों और 7०० श्लोकों में आ जाता है। गीता माँ है. संकट के समय जो भी इस गीता माता की शरण में जाता है , उसे ज्ञानामृत वह तृप्त कर देती है।

“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्” ||4- 7||

हे अर्जुन, जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ।

“ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे “ || 4 - 8 ||

यही नहीं , भक्तों का उद्धार करने , दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं इस पृथ्वी पर, हर युग में प्रकट होता हूँ।

गीता हर किसी का भी प्रभावी ढंग से मार्गदर्शन करती है। चाहे वह किसी कंपनी में कार्यकारी अधिकारी हो, professional हो , व्यवसायी, Housekeeper या छात्र हो- यदि उसके पास स्वयं कृष्ण द्वारा उद्धृत निम्नलिखित गुण हैं: -

  ज्ञान (ज्ञानम) का अर्थ है- पूरे संगठन पर पूर्ण दृष्टि, उसका उद्देश्य;

  बुद्धि - अपनी दृष्टि प्रदान करते समय कई समस्याएँ, कठिनाइयाँ और बाधाएँ आ सकती हैं। उसके पास उन बाधाओं और उनके कारणों को भी पार करने और नियंत्रित करने की बुद्धि होनी चाहिए।

  लक्ष्य- लक्ष्य जितना बड़ा और प्रेरणा जितनी ऊंची होगी सफलता उतनी ही शानदार होगी।

  धृति- का अर्थ है धैर्य। व्यक्ति में अपने लक्ष्य पर लगातार टिके रहने की क्षमता होनी चाहिए। कृष्ण ने जिस तरह से युद्ध के मैदान पर संकट का प्रबंधन किया, अर्जुन को पढ़ाया और फिर पांडवों को जीत की ओर अग्रसर किया - यह इस बात का प्रमाण है।

सार्थ श्रीमद् भगवद् गीता - Srimad Bhagavad Gita With Meaninig (Marathi)

गीता-अमृत:

मनुष्य शरीर :-

  हमारा यह शरीर नाशवान है। यह मन अज्ञान से भरा है। हमारे पास न केवल आध्यात्मिक ज्ञान की कमी है, बल्कि इस भौतिक दुनिया का पूर्ण ज्ञान होने की भी कमी है।

  अपने वर्तमान जीवन में भी हम कभी भी एक जैसे नहीं होते हैं। हमारा शरीर हर पल बदलता रहता  है । हमारा शरीर बचपन से यौवन, यौवन से अधेड़, अधेड़ से वृद्धावस्था में और फिर मृत्यु में कब बदल जाता है इसका हमें पता तक नहीं चलता ।

 देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा l
,तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ll 2-13 ll

  Modern science भी इस बात की पुष्टि करता है कि शरीर के भीतर की कोशिकाओं का कायाकल्प होता है—पुरानी और मृत कोशिकाओं के स्थान पर नई कोशिकाएं स्थान लेती हैं । वैज्ञानिकों का मानना ​​है कि एक वर्ष में हमारे शरीर के 90% से ज्यादा अणु-परमाणु बदल जाते हैं।

  और फिर भी, हमारे शरीर में बार-बार परिवर्तन के बावजूद, हमारी धारणा यह है कि हम अभी तक वही, एक ही प्राणी हैं।

“ त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनं:। 
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेत्तत्रयं त्यजेत “।। ( 16—21)

अर्थात काम , क्रोध और लोभ -- ये तीनों आत्मा का अधःपतन करने वाले साक्षात् नरक के द्वार हैं।  इसलिए बुद्धिमान मनुष्य को इन तीनों को त्याग देना चाहिए।

  इस दुखी संसार में वही सुखी है, जो कर्म करते हुए गीता के गीत गुन-गुनाता रह्ता है। कर्तव्य - बोध के लिए गीता , ज्ञान की कामधेनु है।

  गीता स्वधर्म को भूलकर संसार के संग्राम से भागते हुए दुखी जीव को धर्म का सन्देश और विजय का वरदान देने वाली भगवान की दिव्य वाणी है।

  जहाँ कर्तव्य -बुद्धि का योग देनेवाले योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और उनके साथ कर्म का गांडीव धारण करने वाले अर्जुन रहते हैं , वहीँ श्री, विजय, विभूति , अचल नीति है। वहीँ सुख, संपत्ति, प्रेम और सद्भावना के अंकुर उभरते हैं।

 “ यत्र योगेश्वर कृष्ण, यत्र पार्थो धनुर्धर: ।
तत्र श्रीविजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिरममः ” । । (18- 66)

  गीता में वह शांति और आनंद का मार्ग है , जिसे प्रत्येक प्राणी ढूंढ रहा है।

  मन में यदि कोई शंका या संदेह हो तो गीता पढ़ते ही उसका समाधान मिल जाता है।

अर्जुन को श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त हुई , मित्र और सम्बन्धी के नाते नहीं- शरणागत के नाते ; फलस्वरूप अर्जुन ने ईश्वरीय वाणी -- गीता सुनी। 

अमृतत्व-गीता का काव्य रूप: Amrittatva- Poetric Form of Gita

कर्मयोग सिद्धान्त(Principle of Karmyog):

“ कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ,
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि “ ll 2- 47 ll 

 इस सम्बन्ध में गीता में चार(४) दिशा-निर्देश हैं :

  हमें केवल कार्य(कर्तव्य) करने का अधिकार है ।

पारिवारिक और सामाजिक स्थिति, व्यवसाय आदि के आधार पर हम सभी के विविध कर्तव्य होते हैं।

  फल या परिणाम में हमें कभी कोई अधिकार नहीं है।

फल भूल जाओ। fact यह है कि जब हम परिणामों के प्रति उदासीन रहेंगे , तो हम पूरी तरह से अपने प्रयासों पर focus कर सकते हैं, जिससे परिणाम और भी better होगा।

  कर्ता होने के अहंकार को त्यागें-- कर्मों के फल का कारण मत बनो।

जो निःस्वार्थ भाव से कर्म करता है, उसे उसका फल तो मिलता है, परन्तु वह उससे बंधा नहीं रहता।

  निष्क्रियता या कर्म नहीं करने में आसक्ति न हों।

निष्क्रियता के प्रति लगाव केवल अज्ञानता, आलस्य आदि ही पैदा करेगा। काम ही पूजा है, काम ही भगवान है ( work is worship)।

हमें यह महसूस करना चाहिए कि केवल प्रयास ही हमारे हाथ में है, परिणाम नहीं। व्यक्ति को अपनी कर्तव्यपरायणता में प्रतिबद्ध और वफादार रहना चाहिए।


Karmayoga Perfection in Work (Selections from the works of Sri Aurobindo and The Mother)

अनासक्त कर्म / स्वधर्म:

  काम , क्रोध, लोभ, मोह, अज्ञान, अविद्या आदि की प्रेरणा से किये गए कर्मो में सदा आसक्ति रहती है।

  आत्मा, परमात्मा या पवित्र मन से किये गए कर्मों को अनासक्त कर्म कहते हैं।

  अपने स्वार्थ के लिए पर-पीड़ा , छल -कपट और हिंसा से कर्म करने वाला आसक्त कहा जाता है।

  न्याय ,सत्य, सेवा और कर्तव्य-पालन के लिए कर्म करने वाला अनासक्त है।

श्री कृष्ण की कृपा से अर्जुन को अनासक्त कर्म अथवा स्वधर्म का ज्ञान हुआ, उसके  संदेह का नाश हुआ।

कर्महीन का जीवन नर्क है। जीवन कर्म के लिए मिला है। कर्म छोड़कर बैठ जाना मृत्यु है। 

गीता महात्म्य के अनुसार –

“ एकं  शास्त्रं  देवकीपुत्रगीतमेको  देवो देवकीपुत्र एव।
एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा “।।

आज के युग में लोग एक शास्त्र , एक ईश्वर , एक धर्म और एक वृति  के लिए अत्यंत उत्सुक हैं।

इसलिए केवल एक शास्त्र- भगवद्गीता पूरे ब्रह्मांड के लिए पर्याप्त है। केवल एक भगवान श्री कृष्ण ही सच्चिदानंद हैं। एक मंत्र, एक प्रार्थना - उनके नाम का कीर्तन हो और केवल एक ही कार्य हो- भगवान की सेवा--जो सारे विश्व के लिए हो ।

मृत्यु के समय गीता के आठवें ( ८ ) अध्याय का पठन और श्रवण करना पवित्र माना गया है. श्री कृष्ण ने स्पस्ट शब्दों में यह घोषणा की है कि जो मनुष्य अन्तकाल में भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है , वह मेरे स्वरुप को ही प्राप्त होता है , इसमें सन्देह नहीं है।

 “ अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय: “ ||8 - 5||

योगयुक्त होकर भगवान के शब्द सुनने से हृदय प्रफुल्लित होकर अर्जुन की भांति कह उठता है-

" भगवन,  आप पुनः विस्तार से अपने ऐश्वर्य और योगशक्ति का वर्णन करें। मैं आपके विषय में सुनकर कभी तृप्त नहीं होता हूँ, क्योंकि जितना भी आपके विषय में सुनता हूँ, उतनी ही आपकी वाणी-अमृत धार को चखना चाहता हूँ। " ( १०/१८) 

The Bhagavad Gita- A Fresh Approach (Messages From The Supreme: The God, Lord Krishna, Talks to Arjuna- No Interpreter)

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