'सीय राम मय सब जग जानी' एवं 'भलि भारतभूमि, भले कुल जन्म' से समस्त जगत को अपना समझने वाले और श्रेष्ठ भारतभूमि में जन्म लेकर अपने को गौरवान्वित समझने वाले सन्तशिरोमणि महाकवि गोस्वामी तुलसीदास की जन्मभूमि पर विवाद, वास्तव में क्षुब्ध एवं व्यचित करने वाला है। समय-समय पर गोस्वामीजी की जन्मभूमि के रूप में हाजीपुर (बांदा), हस्तिनापुर (गढ़ मुक्तेश्वर के निकट मेरठ), तारी (बांदा), तारी (सोरों के निकट, एटा), राजापुर (बांदा), सोरों (एटा), अयोध्या, काशी, बलिया, राजापुर (गोंडा) के दावे प्रस्तुत किए गये। वर्तमान में भी तीन स्थान राजापुर (बांदा), सौरों (एटा) एवं राजापुर (गोंडा) तुलसी-जन्मभूमि के रूप में अपनी दावेदारी बनाये हुए हैं, और अब तो अपने पक्ष के समर्थन हेतु पत्रकारिता, राजनीति एवं धर्म से जुड़े महानुभावों को भी प्रयोग किया जा रहा है।
अपनी द्वितीय काव्य-कृति 'रत्नावली-प्रिया तुलसी की' के लेखन के दौरान उक्त जन्मभूमि-विवाद का प्रसंग मुझे निकट से देखने का अवसर मिला। पुनः, उक्त कृति के लोकार्पण के पश्चात् मेरे गुरुतुल्य डॉ. शंभुनाथ जी एवं मेरे कुछ अन्य सुहृदों ने मुझे परामर्श दिया कि मुझे गोस्वामी तुलसीदासजी से संबंधित विवादों के निस्तारण हेतु भी कुछ लिखना चाहिए। मुझे उक्त परामर्श अत्यन्त रुचिकर लगा, क्योंकि मेरा मानना है कि महामुनि-महाकवि तुलसीदास पर जिन सन्तों, विद्वानों, जिज्ञासुओं आदि ने लेखनी चलाई है, उन्होंने भारतीय समाज का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हित ही किया है। यद्यपि इस परिप्रेक्ष्य में सर्वाधिक दुःखद बात है- हिन्दी के महानतम कवि का सर्वमान्य जीवनवृत्त न उपलब्ध होना। अतएव मेरे विचार से, हिन्दी-साहित्य के विद्वानों, शोधार्थियों, शुभचिन्तकों आदि सभी का यह दायित्व है कि क्षेत्रवादी एवं आस्पदवादी मानसिकता से मुक्त होकर तुलसी-जीवनवृत्त पर आच्छादित भ्रम के तिमिरसंकुल को हटाकर, इसे सत्य के आलोक से प्रकाशित करें।
तुलसी-जीवनवृत्त के तिमिराच्छन्न होने में जहाँ क्षेत्रवाद, आस्पदवाद आदि कुछ हद तक कारण रहे हैं, वहीं संभवतः सबसे बड़ा कारण रहा है- विक्रमीय 16 वीं से 18वीं शताब्दी के मध्य तीन या चार तुलसी नामधारी व्यक्तियों का होना, जिन्होंने कोई न कोई रामायण (राम-कथा)' अवश्य लिखी। इनमें 'रामचरितमानस' के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास एवं 'घट रामायण' के रचयिता संत तुलसी साहिब की कृतियों के संबंध में लगभग सर्वमान्य निर्णय लिया जा चुका है। मानसकार तुलसी की 9 कृतियाँ रामचरितमानस, विनयपत्रिका, कृष्णगीतावली, कवितावली (हनुमानबाहुक सहित), जानकी मंगल, पार्वतीमंगल, बरवै रामायण और दोहावली तो सर्वमान्य हैं; उनकी बड़ी कृतियों में 'तुलसी सतसई' तथा छोटी कृतियों में वैराग्य संदीपनी, रामाज्ञाप्रश्न, रामललानहछू, हनुमानचालीसा, संकटमोचन आदि की प्रामाणिकता सर्वमान्य नहीं है। रोला रामायण, करखा रामायण, कुंडलिया रामायण, लवकुश कांड आदि मानसकार तुलसी की रचनायें नहीं मानी गई हैं और कदाचित इनमें से कुछ तुलसी नामधारी अन्य व्यक्ति की हैं। कालान्तर में किसी अन्य तुलसी अथवा एकाधिक तुलसियों के जीवनवृत्त को मानसकार तुलसी के जीवनवृत्त में आरोपित कर प्रकरण को उलझा दिया गया है।
यह भी स्पष्ट करना है कि प्रस्तुत कृति कुछ अंश में शोधपरक हो सकती है, किन्तु मूलतः यह चिन्तनपरक है। बहरहाल, इसमें लगभग हर पक्ष की सारभूत बातें संक्षेप में उल्लिखित हैं। लेखक द्वारा राजापुर (बांदा), राजापुर (गोंडा) एवं सोरों (एटा) जाकर तुलसी-जन्मभूमि कहे जाने वाले स्थान व्यक्तिगत रूप से अवलोकित किए गए हैं. वहाँ उपलब्ध सामान्यजन से वार्ता भी की गई है और इस प्रकार जनश्रुतियों की जानकारी भी की गई है। जहाँ प्रमाणभूत साक्ष्य उपलब्ध न हों, वहाँ जनश्रुतियाँ भी कुछ सहायता कर सकती हैं, ऐसा मेरा विश्वास है।
लेखक उन सभी विद्वानों, मनीषियों, संतों एवं प्रकाशनों का हृदय से अत्यन्त आभारी है, जिनकी कृतियाँ और विचार कृति के लेखन में सम्बल का कार्य करते रहे हैं और उनके विचारों का कृतज्ञ होकर मेरे द्वारा उपयोग किया गया है।
लेखक डॉ. शंभुनाथ जी (पूर्व मुख्य सचिव, उत्तर प्रदेश एवं पूर्व कार्यकारी अध्यक्ष, उ.प्र. हिन्दी संस्थान, लखनऊ), श्री जय शंकर मिश्र जी, आई.ए.एस. (से.नि.) एवं सहृदय कवि तथा उदात्त लेखक, श्री उमेश सिन्हा जी, आई.ए.एस. और 'दैनिक जागरण', लखनऊ के समीक्षा सम्पादक श्री राजू मिश्र जी का हृदय से कृतज्ञ है, जिन्होंने उसकी कृति 'रत्नावली-प्रिया तुलसी की' के अनुशीलन में अपना बहुमूल्य समय तो दिया ही, अपने अभिमत से उसे प्रोत्साहित भी किया। लेखक डॉ. चितरंजन मिश्र, प्रतिकुलपति-अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र, डॉ. अनन्त मिश्र, पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष हिन्दी विभाग, दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, डॉ. अनुपम नाथ त्रिपाठी, प्रोफेसर (एवं पूर्व अध्यक्ष) मनोविज्ञान विभाग, दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, का भी हृदय से कृतज्ञ है, जिन्होंने उसकी पिछली कृति का तो अनुशीलन किया ही, उसे प्रोत्साहित भी किया।
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